________________ वाक्य के उस विष को निकाल देता है जिससे अभिमान का सर्जन होता है। वस्तु के अन्य धर्मों के अस्तित्व को इन्कार करने से पदार्थ के साथ अन्याय होता है। - स्याद् शब्द एक न्यायाधीश के समान न्याययुक्त कथन कहता है कि - हे अस्ति ! तुम अपने अधिकार की सीमा में रहो। स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से जिस प्रकार तुम घट में रहते हो उसी तरह पर द्रव्यादि की अपेक्षा 'नास्ति' नाम का तुम्हारा भाई भी घट में रहता है / जिस समय जिसकी मुख्यता होती है उसका नाम लिया जाता है। इस प्रकार स्याद्वाद पद्धति के कथन का आधार सप्तभंगी है। जैन दर्शन में सप्तभंगी का अभिप्राय भाषा अभिव्यक्त के सात प्रकार है। स्याद्वाद जहाँ वस्तु का विश्लेषण करता है वही सप्तभंगी वस्तु के अनन्त धर्मों में से प्रत्येक धर्म की विश्लेषण करने की प्रक्रिया को प्रस्तुत करती है। इसे 'सप्तभंगीन्याय' भी कहा जाता है। सप्तभिः प्रकारैः वचन विन्यासः सप्तभंगीतिगीयते।४६ वस्तु के स्वरूप कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाना ही सप्तभंगी है। प्रत्येक वस्तु में कथंचित् ‘नित्यत्व' आदि सात धर्म प्रत्यक्ष जाने जाते है - सर्वत्र हि वस्तुनि स्यान्नित्यात्वादया सप्त धर्माः प्रत्यक्षं प्रतीयन्ते।४४७ सप्त यानि सात और भंग अर्थात् विकल्प प्रकार या भेद ये सप्तभंग किसी भी वस्तु धर्म पर घटित किये जा सकते है। इसके अतिरिक्त आठवाँ वचन प्रयोग नहीं हो सकता। सप्त भंगी के मूल भंग तीम है। स्यात् अस्ति, स्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्यम् / इसके उत्तर भेद चार है। इस सप्तभंगी का विवेचन आचार्य हरिभद्र रचित शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका में अति विस्तार से वर्णन किया है / जैसे कि - एवं चेह सप्तभङ्गी प्रवतर्त्त, तामिदानीं दिङ्नमात्रेण दर्शयामः तथाहि - स्यादस्त्येव, (1) स्यानास्त्येव (3) स्यादवक्तव्यमेव (4) स्यादस्त्येव स्याद्नास्त्येव (5) स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव (6) स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव (7) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव इत्युल्लेखः। वस्तु कथंचित् ‘सत्' होती है। (2) वस्तु कथंचित् ‘असत्' होती है / (3) वस्तु कथंचित् ‘अवाच्य' होती है। (4) वस्तु कथंचित् सत् है ही और कथंचित् असत् ही (5) वस्तु कथंचित् सत् और कथंचित् अवक्तव्य होती है (6) वस्तु कथञ्चित् असत् और कथंचित् अवाच्य होती है (7) वस्तु कथञ्चित् सत् है ही कथंचित् असत् है ही और कथञ्चित् अवाच्य होती ही है।४४८ इसी प्रकार स्याद्वाद सप्तभंगी का स्वरूप स्याद्वाद४४९ रहस्य आदि अनेक ग्रन्थों में निरूपित है। स्याद्वाद का उद्गम स्थल अनेकान्त वस्तु है और उस अनेकान्त वस्तु को व्यवस्थित रीति से व्यक्त करने की प्रक्रिया सप्तभंगी है यह वस्तु में स्थित विरोधि धर्मयुगलों को अपेक्षा भेद से दूर करती है। इस प्रकार स्याद्वाद अनेकान्त और सप्तभंगी एक दूसरे के आश्रित है और आचार्य हरिभद्र ने भी अपने ग्रन्थो में विशाल दृष्टिकोण रखते हुए इन तीनों को त्रिवेणी संगम की भांति संकलित किये है जो आज भी विद्वद्वर्य वर्ग हृदय से आदर करता [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / / द्वितीय अध्याय | 185]