________________ शायदं वे लोग इस विषय से अपरिचित, अनभिज्ञ होंगे। यहाँ धर्म-अधर्म से पुण्य-पाप को अथवा वैशेषिकों के माने हुए गुण विशेष को नहीं समझना चाहिए। - किन्तु ये तो अपने आप में स्वतन्त्र सत्तावाले द्रव्य है जैसे कि आगे बताया जायेगा कि पुण्य-पाप तो कर्म के भेद है जिनका वर्णन कर्म मीमांसा में किया जायेगा। लेकिन महाप्राज्ञ जैनदर्शनकारों ने तो धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय की एक निरूपम एवं निराली व्याख्या निरूपित है जो हमें आगम ग्रंथो में हरिभद्रसूरि के ग्रंथों में एवं उत्तरकालीन जैनाचार्यों के साहित्य में स्पष्ट रूप से मिलते है - जैसे कि 'जीवानां पुद्गलानां च स्वभावत एव गति परिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणात् तत् स्वभावपोषणाद्धर्मः अस्तयश्चेह प्रदेशाः तेषां कायः सङ्घातः गणकाए य निकाए खंधे वग्गे तहेव रासी य इति वचनात् अस्तिकाय प्रदेशसङ्घात इत्यर्थः धर्मश्चासौ अस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः। 183 __अपने स्वभाव से गतिपरिणाम प्राप्त किये हुए जीव और पुद्गलों के गतिस्वभाव को धारण करने, पोषण करने से धर्म कहलाता है तथा अस्ति अर्थात् प्रदेशों उनका काय अर्थात् समूह। कारण कि गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग तथा राशि ये पर्यायवाची शब्द है। अतः अस्तिकाय यानि प्रदेशों का समूह / इससे परिपूर्ण धर्मास्तिकाय.रूप अवयवी द्रव्य कहलाता है। अवयवी अर्थात् उस प्रकार का संघातरूप परिणाम विशेष है। परंतु अवयव द्रव्यों से भिन्न द्रव्य नहीं है। कारण कि भिन्न स्वरुप में उसका बोध नहीं होता है। लम्बाई और चौडाई में संघात रूप से परिणाम विशेष को प्राप्त तन्तुओं को लोक में पट नाम से पुकारते है। लेकिन तन्तुओं से भिन्न पट नाम का द्रव्य नहीं है। इस सम्बन्ध में अन्य आचार्यों ने भी कहा - 'तन्तु आदि से भिन्न पटादि का ज्ञान नहीं होता है। परन्तु विशिष्ट तत्त्वादि का ही पटादि रूप में व्यवहार होता है। यही बात अनुयोग हारिभद्रीय 84 तथा अनुयोगमलधारीयवृत्ति१८५ में भी है। ___ धर्मास्तिकाय से प्रतिपक्ष अधर्मास्तिकाय है। कारण कि स्थिर परिणाम को प्राप्त किये हुए जीव और पुद्गलों को स्थिति परिणाम में अवलंबन अमूर्त असंख्यात प्रदेशों का समूह अधर्मास्तिकाय है। जीवाजीवाभिग टीका,१८६.समवायांगवृत्ति१८७ में इसी प्रकार की व्याख्या मिलती है। . . प्रदेश रूप में असंख्यात प्रदेशात्मक होने पर भी द्रव्यार्थ रूप से एकत्व होने से धर्मास्तिकाय एक है। गमन परिणाम को प्राप्त किये हुए जीव और पुद्गलों को गति में सहायक होने से धर्म और अस्तिप्रदेशों उनका समूह अर्थात् अस्तिकाय - धर्म+अस्तिकाय=धर्मास्तिकाय। अधर्मास्तिकाय इससे विपरीत स्थिर करने में सहायक है। धर्मास्तिकाय का लक्षण - भगवती में इस प्रकार मिलता है। धर्मास्तिकाय से जीवों का आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष (आंखे खोलना) मनयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार दूसरे जितने भी चलभाव (गमनशील-भाव) है, वे सब धर्मास्तिकाय के द्वारा प्रवृत्त होते है। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है। ‘गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए।' ( आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 123 )