Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ इन साधक प्रमाणों को बताकर उन्होंने सर्वज्ञ सिद्धि में एक, जिस मुख्य हेतु का प्रयोग किया है वह है “सुनिश्चिता संभवद्बाधकत्व' अर्थात् किसी भी वस्तु की सत्ता सिद्ध करने के लिए सबसे बड़ा प्रमाण यही हो सकता है कि उसकी सत्ता में कोई बाधक प्रमाण न हो। जैसे कि - मैं सुखी है। इसका सबसे बड़ा साधक प्रमाण यही है कि उसके कोई बाधक प्रमाण नहीं है। चूँकि सर्वज्ञ की सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अतः उसका निर्बाध सद्भाव सिद्ध होता है। तथा अनुमान प्रमाण तो डंके की चोट के साथ सर्वज्ञ की सिद्धिं करता है। उसी प्रकार उपमान आगम तथा अनुपलब्धि से भी सर्वज्ञ की सिद्धि सार्थक होती है।४०८ फिर भी अन्य दर्शनकार कुछ बाधक प्रमाण इस प्रकार देते है जिसका निराकरण सर्वज्ञ-सिद्धि आदि में. मिलता है। अरिहंत सर्वज्ञ नहीं है। क्योंकि वे वक्ता है और पुरुष है। जैसे कोई गली में घूमनेवाला आवारा मनुष्य।०९ वक्तृत्व और सर्वज्ञत्व का कोई विरोध नहीं है। वक्ता भी हो सकता है और सर्वज्ञ भी। यदि ज्ञान के विकास में वचनों का ह्रास देखा जाता तो उसके अत्यन्त विकास में वचनों का अत्यन्त ह्रास होता, पर देखा तो इससे उल्टा ही जाता है। ज्यों-ज्यों ज्ञान में वृद्धि होती है, त्यों-त्यों वचनों में प्रकर्षता ही देखी जाती है।४९० वक्तृत्व का सम्बन्ध किसी भी विवक्षा से है। अतः इच्छारहित निर्मोही सर्वज्ञ में वचनों की सम्भावना कैसे ? क्योंकि इच्छा तो मोह का ही पर्याय है।४११ विवक्षा का वक्तृत्व से कोई अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। मन्दबुद्धि शास्त्र विवक्षा रखते है। पर वे शास्त्र का व्याख्यान नहीं कर सकते। सुषुप्त मूर्च्छित आदि अवस्थाओं में विवक्षा न होने पर भी वचनों का उच्चार देखा जाता है। अतः वचन और विवक्षा में अविनाभाव नहीं है। चैतन्य और इन्द्रियों की पटुता ही वचन-प्रवृत्ति में कारण होती है और इनका सर्वज्ञता के साथ कोई विरोध नहीं है। अथवा वचनों और विवक्षा में सम्बन्ध मान भी लिया जाय तो निर्दोष और हितकारक वचनों की प्रवृत्ति करानेवाली विवक्षा दोषवाली कैसे हो सकती है ? इसी तरह निर्दोष पुरुषत्व का सर्वज्ञता के साथ कोई विरोध नहीं है / पुरुष भी हो और सर्वज्ञ भी। यदि इस प्रकार के व्यभिचारी हेतु से साध्य की सिद्धि की जाय तो इन्हीं हेतुओं से जैमिनी में वेदार्थज्ञता का भी अभाव सिद्ध हो जायेगा। ___ हमें किसी प्रमाण से सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता है। अतः अनुपलब्ध का अभाव ही मानना आवश्यक हो जाता है। पूर्वोक्त अनुमानों से जब सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाती है तब उसे अनुपलम्भ कैसे कहा जा सकता है अथवा अनुपलम्भ आपको है या संसार के सभी जीवों को ? हमारे चित्त में इस समय क्या विचार है' इसका अनुपलम्भ आपको है या पर इससे हमारे चित्त के विचारों का अभाव नहीं किया जा सकता। अतः यह स्वोपलम्भ अनैकान्तिक है / 'सबको सर्वज्ञ का अनुपलम्भ है' यह बात तो सर्वज्ञ ही जान सकता है असर्वज्ञ नहीं। आगम में कहे गये साधनों का अनुष्ठान करके सर्वज्ञता प्राप्त होती है और सर्वज्ञ के द्वारा आगम कहा [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / ीय अध्याय | 170