Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ जाता है। अतः सर्वज्ञ और आगम दोनों अन्योन्याश्रित है। ____ आचार्य हरिभद्रसूरि ने षोडशकम् में कहा है कि आगम वचन ही सर्वज्ञ वचन है। अर्थात् आगम वचन ये असर्वज्ञ के वचन नहीं है, परंतु सर्वज्ञ के वचन है। 'सर्वज्ञवचनमागमवचनं यत्परिणते ततस्तस्मिन् नाऽसुलभमिदं सर्वं, ह्युभयमल परिक्षयात् पुंसाम् / '412 आगम वचन सर्वज्ञ वचन है। उसी कारण आगम वचन परिणत होने पर विधिस्वरुप अध्यात्म के लाभ से क्रियामल और भावमल दोनों का उच्छेद होने पर जीवों को दस प्रकार की संज्ञाओं आदि का परिहार निश्चय रूप से दुर्लभ नहीं है। सर्वज्ञ आगम का कारक है। प्रकृत सर्वज्ञ का ज्ञान पूर्व सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित आगमार्थ के आचरण से उत्पन्न होता है। पूर्वसर्वज्ञ को उससे पूर्वसर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत आगम से सर्वज्ञता प्राप्त होती है। इस प्रकार यह परंपरा अनादि से चलती है। इसमें अन्योन्याश्रित दोष का संभव नहीं है। सर्वज्ञ पद के लिए सामान्य व्यक्ति अधिकारी हो सकता है ? सभी को श्रेष्ठतम बनने का मनोरथ रहता है। परंतु सभी सर्वज्ञ पद पर पहुँचने में समर्थ नहीं दिखते है। अतः शास्त्र-सिद्धान्त लक्षणाएँ एक ऐसे लक्ष्य को निर्दिष्ट करती है कि आपको प्रतिकूल रहने का पराक्रम प्रकटित करना पडेगा। कायिक सुखों से, इन्द्रिय जन्य संतोषों से पराङ्मुख बनने का प्रारंभ करना पड़ेगा। मन के संकल्प-विकल्पों को संत्यक्त कर अपने शुद्ध स्वरुप आत्मभाव में परिणत होने के लिए ध्यानयोग-ज्ञानयोग-तपयोग-त्यागयोग और संयमयोग को सुसाधित करने / का सुनिश्चय निर्धारित करना होगा। प्रायः यह मार्ग उपदेश का विषय बना है। पर आचरण में लाने का उद्यम कतिपय जनों में उपलब्ध हुआ है। कोई जन्म-जन्मांतर के संस्कारों को लेकर इसी मनुष्यभव में महान् होने का एक सुदृढ संकल्प साकार करता है। संसार की सुविधाओं से मुख को पराङ्मुख कर एकाग्रता से एकान्त में स्थिर होकर स्वयं को शुद्ध-बुद्ध स्वरुप में स्थिर बनाने का अभ्यास जगाता है। परंतु सांसारिकता का सर्वथा त्याग शक्य नहीं होता है। फिर भी ऐसे अशक्य कार्यकलापों को विसर्जित करने के लिए विरति विज्ञान के वैभव में व्युत्पन्न होने का साहस स्वीकार करता है। वैराग्यवान् बनकर, विज्ञानवान् होकर, महातपमय अपने आपको समुज्जवल करता हुआ सर्वज्ञता की पगदंडी पर एक पथिक बनने का पुनीत प्रयास बढाता है। जैन दर्शन कर्मक्षय पर क्रमिक आत्मोन्नति का उच्चमार्ग प्रतिपादित करता है। जैसे-जैसे कर्म-बंधों का ह्रास होता जायेगा वैसे-वैसे ज्ञान में, तप में विरति और चारित्र भावनाएं भूषित बनती जायेगी। ये भावना ही भव्य होकर एक दिन उसे भव्य पुरुष बनने का अवसर देती है। ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणी में उल्लेख किया है। साथ में ही इसी पुष्टि हेतु दृष्टांत देकर समझाते है कि जैसे सुवर्ण के मेल को तपाकर दूर किया जाता है, शारीरिक रोग को उपचार से दूर करते है, वैसे ही कर्म प्रकृतियों से मुक्त बनने के लिए भी महाउद्यमशील बनना पड़ता है। जिससे आत्मा कर्मों से मुक्त बनकर सर्वज्ञ पद प्रतिष्ठित बन सके।४१३ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व IA द्वितीय अध्याय | 171)