________________ संस्कृति की सर्वाधार हैं। इसी द्वादशांगी में स्याद्वाद का स्वरूप स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। यह स्याद्वाद एक सिद्धान्तमय निरूपण है ऐसी निरूपणता सम्पूर्णता से स्वच्छ है जिसको निष्तर्क स्वीकार किया जा सकता है। इसीको औपपातिक सूत्र में इस रूप से वर्णित किया है। इच्चेयं गणिपिडगं, निच्चं दव्वट्ठियाएँ नायव्वं पज्जाएण अणिच्चं, निच्चानिच्चं च सियवादो इस गणिपिटक को नित्य द्रव्यास्तिकाय जानना चाहिए। पर्याय से अनित्य रहनेवाला और नित्यानित्य की संज्ञा को धारण करनेवाला स्याद्वाद है। जो सियवायं भासति प्रमाणपेसलं गुणाधारं। भावेइ से ण णसयं सो हि पमाणं पवयणस्स। जा सियवाय निवति पमाणपेसलं गुणाधारं। भावेण दुट्ठभावो, न सो पमाणं पवयणस्स॥२१ प्रमाणों से सुंदर, गुणों का आधार ऐसे स्याद्वाद का जो प्रतिपादन करता है वह भावों से नाश नहीं होता है और वही प्रवचन का प्रमाण है। तथा इससे विपरीत जो प्रमाणों से मनोहर गुणों का भाजन ऐसे स्याद्वाद की निंदा करता है वह दुष्ट भाववाला होता है तथा प्रवचन का प्रमाण नहीं बनता। यह स्याद्वाद अनेकान्तवाद से ही एक नियोजित निश्चय है क्योंकि उत्तर आचार्यों ने इस स्याद्वाद सिद्धान्त को ही अनेकान्तवाद से पुष्पित, प्रफुल्लित किया है। आचार्य हरिभद्र सूरि शास्त्रवार्ता समुच्चय में सप्तभंगी प्रमाण से अनेकान्तवाद का निश्चय निर्धारित करते हुए कहते हैं कि - अनेकान्त एवातः सम्यग्मानव्यवस्थितः / स्याद्वादिनो नियोगेन, युज्यते निश्चयः परम् // 4222 स्याद्वाद अनेकान्तवाद से ही एक नियोजित निश्चय है। वह पृथक् बनकर पर नहीं रह सकता है। अतः सप्तभंगी प्रमाण से अनेकान्तवाद सिद्ध होता है। दार्शनिक दुनिया का अनेकान्तवाद जितना, आस्थेय है उतना ही अवबोधदायक भी है। क्योंकि अनेकान्त-दृष्टि एक ऐसी अद्भुत पद्धति है जिसमें सम्पूर्ण दर्शन समाहित हो जाते है जैसे हाथी के पैर में अन्य पशुओं के पैर, माला में मोती तथा सरोवर में सरिताएँ समाविष्ट हो जाती है। जैसे कि सिद्धसेनदिवाकर सूरि ने द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका में कहा - उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि सर्व दृष्ट्यः। न च तासु भवानुदीक्ष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः // 423 सभी नदी जिस प्रकार महासागर में जाकर मिलती है। परंतु भिन्न-भिन्न स्थित नदीओं में महासागर नहीं दिखता है। उसी प्रकार सर्व दर्शनरूपी नदियों स्याद्वादरूपी महासागर में सम्मिलित होती है, [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII व द्वितीय अध्याय | 178 ]