Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ सर्वज्ञता को ही सर्वोपरि सम्मान देते हुए आचार्य हरिभद्र ने ललित विस्तरा में अनेक विशेषणों से युक्त परमात्म वैशिष्ट्य को विवेचित कर विश्व के साहित्य में सर्वज्ञता को समादरणीय सिद्ध किया है। ऐसी सर्वज्ञ की सिद्धि और प्रसिद्धि के सम्पूर्ण पक्षधर आचार्य हरिभद्र हुए जिनका समदर्शित्व विपक्ष भी स्वीकार करता है। सर्वज्ञ श्रद्धेय भी है, सम्माननीय भी है और शिरोधार्य भी है। आचार्य हरिभद्र ने ससम्मानभाव से सर्वज्ञ की वाङ्मयी पूजा की है और श्रद्धा से नतमस्तक होकर नय-न्याय गुणों से उनके शासन की सुप्रशंसा की है। तथा उनकी आज्ञा को शिरोधार्य कर उनके शासन की जयपताका फहराई है। यही हरिभद्र का हितकारी जीवन उनके साहित्य में स्वर्णिम अक्षरों से संलेखित मिल रहा है। सर्वज्ञ सर्वज्ञाता होकर सभी पदार्थों को प्रमाण प्रमेय से प्रस्तुत करने में प्रवीण रहे है। धर्मसंग्रहणी में अपने विद्वत्ता से उनको इतना संवारा है कि आज भी वे गाथाएँ हरिभद्र की समदर्शित्व को उजागर कर रही है। सर्वज्ञ-सिद्धि में समुन्नत सुवाक्यों से प्रमाणों को प्रमेयों को प्रकटीकृत करते हुए परमात्म विज्ञान को पारदर्शिता से प्रस्तुत किया है। योगदृष्टि समुच्चय में आचार्य हरिभद्रने सर्वज्ञ को एक उत्तम कोटि के वैद्य समान बताये है। चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। यस्मादेते महात्मानो, भवव्याधिभिषग्वराः॥४२० यद्यपि सभी सर्वज्ञ एक है फिर भी सर्वज्ञ पुरुषों की देशना शिष्यों के हित के लिए चित्र-विचित्र होती है। कारण कि ये महात्माएँ संसारीं जीवों के भवरोग दूर करने में श्रेष्ठ वैद्य समान है। सर्वज्ञ की देशना अवन्ध्य फलवाली होती है। क्योंकि वे अचिन्त्य पुण्य के प्रभाव वाले होते है। अतः जीव देशविरति, सर्वविरति आदि धर्म को प्राप्त करते है। कपिल, बुद्ध आदि भी औपचारिक सर्वज्ञ है। लेकिन वे उत्कट अचिन्त्य पुण्य प्रभाववाले नहीं होते है। फिर भी सामान्यकोटि के जीवों से विशेष ज्ञानी होते है और योगाभ्यास होने से कुछ विशिष्ट पुण्यवाले भी होते हैं। अतः उनकी देशना भी जीव को उपकारी बनाती है और ‘जीव बोध भी पाते है। इस प्रकार सर्वज्ञ विशिष्ट ज्ञानवान्, अचिन्त्य पुण्यवान्, परोपकारवान् के रूप में माने गये है। अनेकान्तवाद किसी भी बात को सर्वथा एकान्त से नहीं कहने का, और न ही स्वीकार करने का संलक्ष्य जैन दर्शन में मिलता है। इसी से जैन दर्शन को अनेकान्तवाद से आख्यायित किया गया है। स्याद्वाद स्वरुप से चरितार्थ बनाया विचार और आचार इन दोनों से दर्शन धर्म की सिद्धि कही गई है। ऐसे दर्शन धर्म में आचारों को नियमबद्ध नीति से पालने का आदेश मिलता है। विचारों की स्वाधीनता सर्वत्र सुमान्य कही गई है पर वह भी [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII IIIT द्वितीय अध्याय 175)