Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ हठस्स अणवगलस्स, णिरूवकिट्ठस्स जंतुणो। 'एगे ऊसास नीसासे, एक पाणुत्ति वुच्चइ / / सत पाणूति नीसासे सत्त थोवाणि सेलवे। लवाणं सत्तहत्तरीए स मुहूत्ते वियाहिए / / 366 भारतीय गणित में भारतीय गणित की संख्या में दस गुने की संख्या की परिपाटी है। जिसमें एक, दश, सौ, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड, दस करोड, अरब, दस अरब, खरब, दस खरब, पद्म, दश पद्म; नील, दस नील, शंख, दस शंख तक गणना प्रसिद्ध है। पर अमल सिद्धि और लीलावती ग्रन्थ में इसके आगे की कुछ संख्याओं के भी नाम मिलते है। लीलावती के अनुसार दस शंख के बाद की संख्याओं को क्षिति, महाक्षिति, निधि, महानिधि, कल्प, महाकल्प, घन, महाघन, रुप, महारुप, विस्तार, महाविस्तार, उंकार, महाउंकार और औंकार शक्ति तक की संख्याओं के नाम होते है। ___असंख्याता के भेद - (1) जघन्यपरीत्त असंख्यातु (2) मध्यमपरीत असंख्यातु (3) उत्कृष्टपरीत असंख्यातु (4) जघन्ययुक्त असंख्यातु (5) मध्यमयुक्त असंख्यातु (6) उत्कृष्टयुक्त असंख्यातु (7) जघन्य असंख्यात असंख्यातु (8) मध्यम असंख्यात असंख्यातु (9) उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यातु। इस प्रकार नव प्रकार के असंख्याता है। अनंत के भेद - (1) जघन्यपरीत अनंतु (2) मध्यमपरीत अनंतु (3) उत्कृष्टपरीत अनंतु (4) जघन्ययुक्त अनंतु (5) मध्यमययुक्त अनंतु (6) उत्कृष्टयुक्त अनंतु (7) जघन्य अनंतानंतु (8) मध्यमअनंतानंतु (9) उत्कृष्टअनंतानंतु। नव प्रकार का अनंत है।३६७ ___ सिद्धान्त के मत में अनंत के आठ भेद है 368 / नव अनंत में कोई वस्तु नहीं होती है। अनुयोग हारिभद्रीय वृत्ति में भी इसका वर्णन मिलता है।३६९ लघुक्षेत्र समास आदि में असंख्याता, अनंता आदि का स्वरूप विस्तार से बताने में आया है।३७० लौकिक पुरुषों के समान ही काल विभाग तीन प्रकार का इस प्रकार भी है। भूत-भविष्य और वर्तमान काल का ठाणांग में वर्णन मिलता है। जैसे कि - तिविहे काले पन्नते। तं जहा - तीते पडुप्पन्ने अणागए।३७९ इसी प्रकार लोकप्रकाश, तत्त्वार्थ टीका आदि में भी प्राप्त होता है। बृहद् द्रव्य संग्रह में काल का दो प्रकार से निरूपण किया गया है। वह इस प्रकार है - जो द्रव्य परिवर्तन रूप है वह व्यवहार काल है - ‘दव्वपरिवट्टरुवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।' वह परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व से जाना जाता है। इसलिए ‘परिणामादीलक्खो' अर्थात् परिणाम से लक्ष्य। “वट्टणलक्खो य परमट्ठो' वर्तना लक्षण काल है। वह परमार्थ अर्थात् निश्चय काल है।३७२ जीव तथा पुद्गल के परिवर्तन रूप जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है उस पर्याय की समय घटिका आदिरूप | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / TA द्वितीय अध्याय | 155)