Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ . (1) संसारी - संसरति इति संसार, जिसमें जीवों का परिभ्रमण चालू रहता है अर्थात् जो चार-गतिरूप संसार में भ्रमण करनेवाले है अथवा भ्रमण के कारण रूप कर्मों का सम्बन्ध जिसमें अवस्थित हो, उसे संसारी कहते है, उससे विरहित को मुक्त। यद्यपि जीवों के इन दोनों भेदों में प्रथम स्थान पूजनीय होने से मुक्त का सूत्र के आदि में होना चाहिए। लेकिन विशेष अभिप्राय को ज्ञात करवाने हेतु पहले उल्लेख संसारी शब्द का किया गया है। क्योंकि संसारपूर्वक ही मोक्ष हुआ करता है। प्रत्येक मुक्त पहले संसारि अवस्थापन्न ही होता है। उसके सिवाय एक यह भी है कि सूत्रकार को आगे संसारी जीवों का वर्णन करना है। अतः यह पाठ उचित है। संसारी जीवों के संक्षेप में दो भेद है। संज्ञि अर्थात् मन सहित और असंज्ञि यानि मन रहित। नारक, देव गर्भज मनुष्य और तिर्यंच ये समनस्क है और उसके सिवाय सभी संसारी जीव अमनस्क है। जो शिक्षा-क्रिया-कलाप आदि को समझ सके, ग्रहण कर सके। मन भी दो प्रकार का है - द्रव्यमन और भावमन / मनो-वर्गणाओं द्वारा अष्टकमल दल के आकार में बने हुए अन्तःकरण को द्रव्यमन कहते है और जीव के उपयोगरूप परिणाम को भावमन कहते है। पुनः संसारी जीव दो प्रकार के है - त्रस और स्थावर। ___ जो सनाम कर्म के उदय से स्पष्ट सुख-दुःख का अनुभव करता है वह त्रस है तथा स्थावर नामकर्म के उदय से जिनको अस्पष्ट सुखादि का अनुभव होता है वह स्थावर है। यहाँ कोई इन शब्दों का नियुक्ति के अनुसार 'त्रस्यन्ति इति त्रसाः, स्थानशीलाः स्थावराः।' जो चल-फिर सकता है वह त्रस है तथा जो एक जगह स्थिर हो वह स्थावर है, तो अर्थ युक्ति संगत नहीं बैठेगा। क्योंकि फिर तेउ वायुकाय को भी त्रस कहने का प्रसंग आयेगा तथा कुछ बेइन्द्रिय जीव भी ऐसे है जो एक ही जगह स्थिर रहते है तो उनको स्थावर कहना पड़ेगा। अतः जो सुखादि का लक्षण है वह स्पष्ट है। पृथ्वीकाय आदि स्थावर को लेकर दर्शनकार शंका उठाते है कि उनमें जीव नहीं है / यह उनकी मान्यता युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि पृथ्वीकाय आदि में भी बढ़ना, जीर्णहोना, नष्ट होना आदि अवस्थाएँ पायी जाती है। तथा पाश्चात्य विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकारने के लिए अपनी सहमती प्रकट करते है। संसारी जीवों के दो भेद त्रस और स्थावर है। स्थावर एकेन्द्रिय के दो भेद सूक्ष्म और बादर। उनके दो भेद पर्याप्त और अपर्याप्त / वनस्पतिकाय के दो भेद - प्रत्येक और साधारण / त्रस के - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से 8 भेद / इस प्रकार 4+2+8=14 भेद। फिर एकेन्द्रिय के पृथ्वीकायादि 5 भेद जोडने से तथा पंचेन्द्रिय के जलचर आदि 5 भेद अथवा नारक के 14, तिर्यंच के 48, देव के 198 तथा मनुष्य के 303 कुल 563 / इस प्रकार जीव के अनेक भेद प्रभेद होते है। अजीव के धर्मास्तिकाय आदि मुख्य 5 भेद है। इसके भेद-प्रभेदों से इसकी संख्या बढ़कर 560 हो जाती है। धर्मास्तिकाय आदि का वर्णन पूर्व में अस्तिकाय आदि में कर लिया है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / द्वितीय अध्याय | 161]