Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अजीव तत्त्व का ज्ञान जीव स्वरूप के ज्ञान प्राप्ति में कारण बनता है। जीव जब अजीव ऐसे जड़ पुद्गलों के साथ सम्बन्ध बांधकर अपने स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है, जब वह उसका ज्ञान प्राप्त कर लेगा और अपना स्वरूप जान लेगा तब उससे मुक्त बनने का श्रेष्ठ प्रयत्न करेगा। पुण्य तत्त्व - जीवों को इष्ट वस्तु का जब समागम होता है तब परम आह्लाद की प्राप्ति होती है। तथा सुख की जो अनुभूति करता है उसका मूल शुभकर्म का बंध वह पुण्य और वही पुण्य तत्त्व कहलाता है। अथवा शुभ कर्मबंध के कारणभूत क्रियारूप शुभ आश्रव - ये भी अपेक्षा से पुण्य कहलाता है। क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रकार आ. उमास्वाति म.सा. ने भी तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है - 'शुभ पुण्यस्य।' शुभयोग पुण्य का आश्रव है। पुनाति - जो पवित्र करता है वह पुण्यतत्त्व है। पुण्य का बंध नव प्रकार से होता है - (1) अन्नपुण्य, (2) पानपुण्य (3) आलयपुण्य (4) शयनपुण्य (5) वस्त्रपुण्य (6) मनपुण्य (7) वचनपुण्य (8) कायपुण्य (9) नमस्कारपुण्य / नव कारणों से पुण्यबंध होता है। 42 शुभ प्रकृतियों से वह भोगा जाता है।३८५ / / ___पुण्य के भेद - शातावेदनीय, उच्चगोत्र, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, प्रथम के तीन शरीर के उपांग, प्रथम संघयण, प्रथम संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, श्वासोश्वास, आतप, उद्योत, शुभविहायोगति, निर्माण, त्रसदशक, देव आयुष्य, मनुष्य आयुष्य, तिर्यंच आयुष्य और तीर्थंकर कुल 42 भेद पुण्यतत्त्व के है। इनका उदय होने से जीव पुण्य को भोगता है और पुण्य के कारण वे शुभ आश्रव कहलाते है। यद्यपि पुण्य तत्त्व सोने की बेडी के समान है। फिर भी संसार अटवी के महाभयंकर उपद्रववाले मार्ग को पार करने में अथवा जीतने में समर्थ योद्धा के समान है। (4) पाप तत्त्व - पुण्य तत्त्व से विपरीत पापतत्त्व है अथवा अशुभ कर्म वह पापंतत्त्व / अथवा जिसके द्वारा अशुभ कर्मों का ग्रहण होता है ऐसी अशुभ क्रिया (चोरी, जुगार, दुर्ध्यान, हिंसादि) वह पापतत्त्व है। इस कर्म के उदय से जीवों को अशुभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है। अत्यंत उद्वेग, खेद, दुःख आदि को प्राप्त करता है। नरकादि दुर्गति में गमन करवाता है। पाशयति, मलिनयति, जीवमिति पापम् - जो जीब को मलिन करता है, आत्मा को आच्छादन करता है वह पाप है। . जिस प्रकार पुण्यबंध के 9 प्रकार है उसी प्रकार पाप बंध के 18 प्रकार है। जिसे अठारह पापस्थान कहते है - (1) प्राणातिपात (2) मृषावाद (3) अदत्तादन (4) मैथुन (5) परिग्रह (6) क्रोध (7) मान (8) माया (9) लोभ (10) राग (11) द्वेष (12) कलह (13) अभ्याख्यान (14) पैशुन्य (15) रति-अरति (16) परपरिवाद (17) माया-मृषावाद (18) मिथ्यात्वशल्य - इन अठारह कारण से 82 प्रकार से बांधा हुआ पाप 82 प्रकार से भोगा जाता है। पापतत्त्व के 82 भेद - ज्ञानावरण पाँच, दर्शनावरण नव, अंतराय पाँच, नीच गोत्र, अशातावेदनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, स्थावर दशक, नरकत्रिक, पच्चीस कषाय, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII द्वितीय अध्याय | 162 |