Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ऐसे सात जीव और अजीव के भेदरूप पदार्थ है। इन्होंने पुण्य और पाप को आश्रव में अन्तर्भाव न करके जीव अजीव के भेदरूप सात तत्त्व की सिद्धि की है। वैसे इन्होंने इसमें नव पदार्थों की व्याख्या की है। नवतत्त्व का इस प्रकार 7, 5, और 2 में भी समावेश होता है। अन्यमत में तत्त्व विचारणा- बौद्धदर्शन में चार आर्य सत्य को तत्त्वरुप में स्वीकार किये गये है। जिसका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है। नैयायिकों के मत में प्रमाण आदि सोलह तत्त्व है / (1) प्रमाण (2) प्रमेय (3) संशय (4) प्रयोजन (5) दृष्टांत (6) सिद्धान्त (7) अवयव (8) तर्क (9) निर्णय (10) वाद (11) जल्प (12) वितण्डा (13) हेत्वाभास (14) छल (15) जाति (16) निग्रह स्थान।३९३ कर्म-पुण्य-पाप आत्मा के विशेषगुणरुप है। शरीर विषय इन्द्रिय, बुद्धि, सुख-दुःख आदि का उच्छेद करके आत्मत्वरुप में स्थिति होना मुक्ति है। न्यायसार में आत्यन्तिक दुख निवृत्ति करके नित्य अनुभव में आनेवाले विशिष्ट सुख की प्राप्ति भी मुक्ति माना है। (1) प्रकृति (2) बुद्धि (3) अहंकार (4) स्पर्शन (5) रसन (6) घ्राण (7) चक्षु (8) श्रोत्र (9) मलस्थान (10) मूत्रस्थान (11) वचन के उच्चारण करने के स्थान (12) हाथ और (13) पैर ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ (14) मन (15) रुप (16) रस (17) गन्ध (18) स्पर्श और (19) शब्द- ये पाँच तन्मात्राएँ / इन पाँच भूतों की उत्पत्ति - (20) अग्नि (21) जल (22) पृथ्वी (23) आकाश (24) वायु। इस प्रकार सांख्य मत में चौवीस तत्त्व तथा प्रधान से भिन्न पुरुषतत्व इस प्रकार 25 तत्त्व है।९४ , ___ सांख्यमत में न तो प्रकृति कारण रूप है और न कार्यरूप है। अतः उसको न बन्ध होता है न मोक्ष और न संसार है। वैशेषिक मत में छः तत्त्व माने गये है। द्रव्यं गुणस्तथा कर्म सामान्यं च चतुर्थकम्। विशेषसमवायौ च तत्त्वषट्कं तु तन्मते // 395 द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय ये छह तत्त्व वैशेषिक मत में है। कोई आचार्य अभाव को भी सातवाँ पदार्थ मानते है। आत्मा के नौ विशेष गुणों का अत्यंत उच्छेद होना ही मोक्ष है। मीमांसक तो अद्वैतवादी होने से ब्रह्म को ही स्वीकार करते है। ब्रह्म के सिवाय कुछ भी नहीं है तथा ब्रह्म में लय हो जाना ही मोक्ष है। उपरोक्त अन्यदर्शनकारों के द्वारा मान्य तत्त्व जैन दर्शन के नव अथवा दो तत्त्वों में समावेश हो जाता है। क्योंकि चराचर जगत में जीव अथवा अजीव के सिवाय एक भी पदार्थ ऐसा नहीं जिसका इनमें अन्तर्भाव न हो। सात अथवा नौ भेदों की कल्पना विशेष रूप से बोध देने हेतु की गई है। जिससे जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त हो सके। आचार्य हरिभद्रसूरि ने नौ तत्त्वों की बहुत ही सुन्दर एवं मार्मिक विवेचना की है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIII द्वितीय अध्याय 166