Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ 'निर्जरणं निर्जरा आत्मप्रदेशेभ्योऽनुभूतरसकर्मपुद्गलपरिशाटनं निर्जरा इति / '387 आत्म प्रदेशों के द्वारा अनुभवित रसयुक्त कर्म पुद्गलों का विनाश होना निर्जरा कहलाती है। शुभ अथवा अशुभ कर्म का देश से क्षय होना द्रव्य निर्जरा, अथवा सम्यक्त्व रहित अज्ञान परिणामवाली निर्जरा द्रव्यनिर्जरा अथवा सम्यक् परिणाम रहित तपश्चर्या वह द्रव्य निर्जरा कहलाती है और कर्मों के देशक्षय में कारणरूप आत्मा का अध्यवसाय वह भाव निर्जरा अथवा सम्यक् परिणाम से युक्त तपश्चर्यादि क्रियाएँ भाव निर्जरा कहलाती है। अज्ञान तपस्वियों की अज्ञान कष्टवाली जो निर्जरा वह अकामनिर्जरा तथा वनस्पति आदि सर्दी, गर्मी आदि कष्ट सहन करते है वह भी अकाम निर्जरा यही द्रव्य निर्जरा भी कहलाती है। तथा सम्यक्त्व दृष्टिवंत जीवों की, देश विरति सर्व विरति आत्माओं की सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कथित पदार्थों को जानने के कारण विवेक चक्षु जागृत हो जाने के कारण उनकी इच्छापूर्वक तपश्चर्यादि क्रियाएँ सकाम निर्जरा कहलाती है और अनुक्रम से मोक्षप्राप्ति वाली होने से भावनिर्जरा कहलाती है। निर्जरा के भेद - बारह प्रकार का तप, छ: बाह्य, छः अभ्यंतर। इन बारह प्रकार के तप से कर्मों की निर्जरा होती है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है - ‘तपसा निर्जरा च।' तप से निर्जरा होती है। बन्ध - जीव के साथ कर्म का क्षीर-नीर समान परस्पर सम्बन्ध होना बन्ध कहलाता है। आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों का संबंध होना वह द्रव्यबन्ध और उस द्रव्यबन्ध के कारणरूप आत्मा का जो अध्यवसाय वह भावबन्ध कहलाता है। ___बन्ध चार प्रकार है / प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध, प्रदेशबन्ध / प्रकृति अर्थात् स्वभाव। जैसे कि नीम की प्रकृति कटु-कडवी और ईख की प्रकृति मधुर होती है। उसी प्रकार कर्मों की भी प्रकृति होती है। ग्रहण की हुई कर्मवर्गणाओं में अपने योग्य स्वभाव के पड़ने को प्रकृतिबन्ध कहते है। जिस कर्म की जैसी प्रकृति होती है वह उसी प्रकार के आत्मा के गुणों का घात करती है। जैसे ज्ञानावरणीय प्रकृति ज्ञान गुण का आच्छादन करती एक समय में बंधनेवाले कर्मपुद्गल आत्मा के साथ कब तक सम्बन्ध रखेंगे ऐसे काल के प्रमाण को स्थिति और उसके उन बंधनेवाले पुद्गलों में पड़ जाने को स्थिति बंध कहते है। बंधनेवाले कर्मों में फल देने की शक्ति के तारतम्य पड़ने को रसबन्ध कहते है। और उन कर्मों की वर्गणाओं अथवा परमाणुओं की हीनाधिकता को प्रदेशबंध कहते है। जिस समय कर्म का बन्ध होता है उस समय पर चारों ही प्रकार का बन्ध होता है।३८८ मोक्ष तत्त्व - ‘कृत्स्न कर्मक्षयो मोक्षः।'३८९ सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना मोक्षतत्त्व कहलाता है। तत्त्वार्थ टीका में मोक्ष तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार मिलती है - ‘सकलकर्म विमुक्तस्य ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षणस्यात्मनः आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIII द्वितीय अध्याय | 164)