Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ सबसे सूक्ष्म परमाणु का अवगाह समझना चाहिए। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय द्रव्य नित्य, अवस्थित तथा अरूपी है। नित्य शब्द का अभिप्राय अर्थात् वस्तु का जो स्वभाव है उसका नाश नहीं होना ही नित्य कहलाता है। अतः इनमें धर्मादि चार और जीव, इनमें से कोई द्रव्य ऐसा नहीं जो कि अपने स्वरूप को छोड़ देता हो, प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप को हमेशा कायम रखता है / कोई भी द्रव्य कभी भी सर्वथा नष्ट नहीं होता है। अतः द्रव्य का स्वरूप नित्य है। द्रव्यास्तिक नय को प्रधानतया रूप में लक्ष्य रखकर आचार्यश्रीने नित्य शब्द के द्वारा वस्तु के ध्रौव्य अंश का प्रतिपादन किया / अतएव एकान्तवाद रूप नित्यत्व नहीं समझना चाहिए। द्रव्यों के समान उनके गुण भी नित्य हैं। वे भी सर्वथा नष्ट नहीं हुआ करते हैं। क्योंकि मुख्यतया द्रव्यों का और गौणतया द्रव्यों के आश्रित रहनेवाले गुणों का अस्तित्व ध्रुव है। अवस्थित - द्रव्यों की संख्या अवस्थित अर्थात् निश्चित है। वह न कभी कम होती है और न कभी अधिक / क्योंकि सभी द्रव्य अनादि निधन है और उनका परिणमन कभी एक दूसरे रूप में नहीं हुआ करता है। सभी द्रव्य लोक में अवस्थित रहकर परस्पर में सम्बन्ध रखते है और सम्बन्ध होने पर भी कोई भी द्रव्य एक दूसरे रूप में परिणत नहीं होता और दूसरे द्रव्यों को अपने रूप में न हि परिणमाता है। अतएव इनकी संख्या अवस्थित है। अरूपी-तीसरा गुण धर्मादि द्रव्य का अरूपी विशेषण चार द्रव्यों में ही घटित हो सकता है। पुद्गल द्रव्य में नहीं। क्योंकि पुद्गल तो रूपी है और यहाँ अरूपी विशेषण देने के द्वारा चार्वाकों के प्रत्यक्षवाद का निरास हो जाता है।२०६ धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेशी होने पर भी अखण्ड है। क्योंकि उसके समान जाति-गुण वाला द्रव्य अन्य कोई भी नहीं है तथा ये निष्क्रिय है। जैसे कि कहा - 'निष्क्रियाणि च। 207 क्रिया दो प्रकार की होती है। एक तो परिणाम लक्षणा और दूसरी परिस्पन्दलक्षणा। अस्ति भवति आदि क्रियाएँ वस्तु के परिणाम मात्र को बतलाती है। उनको परिणामलक्षणा कहते है। जो एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक वस्तु को ले जाने में अथवा उसका आकारान्तर बनाने में कारण है। उसको परिस्पन्दलक्षणा क्रिया कहते है। यदि प्रकृत में परिणामलक्षणा क्रिया ली जाय तो धर्मादिक द्रव्यों के अभाव का प्रसङ्ग आता है। क्योंकि कोई भी द्रव्य कूटस्थ नित्य नहीं हो सकता। तदनुसार धर्मादिक में भी कोई न कोई परिणमन पाया ही जाता है। 'अस्ति भवति गत्युपग्रहं करोति' आदि क्रियाओं का संभव व्यवहार धर्मादिक में भी होता है। अतएव परिस्पन्दलक्षणा क्रिया का ही धर्मादिक में निषेध समझना चाहिए। जीव और पुद्गल द्रव्य सक्रिय है। क्योंकि ये गतिमान है और इनके अनेक आकाररूप परिणमन होते है। धर्मादिक द्रव्यों का जो आकार है वह अनादिकाल से है और अनंतकाल तक वही रहेगा। अर्थात् जीव पुद्गल के समान धर्म और अधर्म और आकाश द्रव्य का न तो आकारान्तर ही होता है और न क्षेत्रान्तर में गमन ही होता है। ध्यानशतकवृत्ति के गुजराती विवेचन ‘प्रवचन पराग' में धर्मास्तिकाय आदि छः ही द्रव्यों का आकार [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 126 )