Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ बताने में आये है। जैसे कि - धर्मास्तिकाय का आकार लोकाकाश जैसा है। लोकाकाश का आकार नीचे उल्टी छाब जैसा मध्य में खंजरी जैसा तथा ऊपर संपुट जैसा होता है। जिससे क्रमशः नीचे से ऊपर तीनों हिस्सों में अधोलोक-मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक है। पुद्गल के पाँच जीव के साथ युक्त पुद्गल के छ: आकार है।२०८ धर्मास्तिकाय अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का अंशभूत द्रव्य है। अर्थात् पंचास्तिकाय लोक का एक अंश है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का है। जैसे कि (1) द्रव्य की अपेक्षा - धर्मास्तिकाय द्रव्य एक है। . (2) क्षेत्र की अपेक्षा - धर्मास्तिकाय द्रव्य लोक प्रमाण है। (3) काल की अपेक्षा - धर्मास्तिकाय कभी नहीं था, ऐसा नहीं है। कभी नहीं है ऐसा भी नहीं है। कभी नहीं होगा ऐसा भी नहीं है। अर्थात् तीनों काल में नित्य है। (4) भाव की अपेक्षा - धर्मास्तिकाय अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। (5) गुण की अपेक्षा - धर्मास्तिकाय गमनगुणवाला है।२०९ | आकाशास्तिकाय आकाशास्तिकाय के विषय में जैन दर्शन की एक अनुत्तर विचारणा संप्राप्त होती है। अन्य दर्शनकारों ने जिसे शून्य बताकर उपेक्षा की, वही तीर्थंकर प्रणीत आगमों में उसे उपकारी एवं अवगाहक कहकर सम्मानित किया गया है। सर्व प्रथम आकाश' शब्द की व्याख्या जैनागमों में हमें इस प्रकार समुपलब्ध हुई है। भगवती सूत्र की टीका में ‘आ मर्यादया-अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते प्रकाशन्ते स्वस्वभावं लभन्ते यत्र तदाकाशम्। 210 ___ जहाँ पर सभी पदार्थ अपनी मर्यादा में रहकर अपने-अपने स्वभाव को प्राप्त करते है तथा प्रकाशित होते है वह आकाश है। ___ जीवाभिगम टीका में - चारों ओर से सभी द्रव्य यथावस्थित रूप से जिसमें प्रकाशित होते है वह आकाश है।२११ प्रज्ञापना टीका में - मर्यादित होकर स्व-स्वभाव का परित्याग किये बिना जो प्रकाशित होते है तथा सभी पदार्थ व्यवस्थित स्वरूप से प्रतिभासित होते है वह आकाश है।२१२ आचार्य हरिभद्र सूरि दशवकालिक की टीका में आकाश की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहते है किआकाशन्ते दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तस्मिन् स आकाश।२१३ / अपने धर्म से युक्त आत्मादि जहाँ प्रकाशित होते है वह आकाश है। अनुयोग हारिभद्रीय वृत्ति में एक विशिष्ट व्याख्या को समुल्लिखित की है वह इस प्रकार है - [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIN VIA द्वितीय अध्याय | 127 ]