Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ इस प्रकार जीव प्रदेशों के समूह को जीवास्तिकाय कहते है। भगवती में गणधर गौतमस्वामी भगवान से पूछते है कि - भगवन् ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? प्रत्युत्तर में भगवान कहते है - हे गौतम ! जीवास्तिकाय आभिनिबोधिक ज्ञान की अनन्त पर्यायें श्रुतज्ञान की अनन्त पर्यायें प्राप्त करता है। जीवास्तिकाय में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं है। वह अरूपी है, जीव है, शाश्वत है और अवस्थित लोकद्रव्य है। वह ज्ञान दर्शन उपयोग को प्राप्त करता है। जीव का लक्षण उपयोग है।२६५ संक्षेप में वह पाँच प्रकार का है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, गुण। (1) द्रव्य की अपेक्षा से - जीवास्तिकाय अनन्त जीव द्रव्य रूप है। (2) क्षेत्र की अपेक्षा से - लोक प्रमाण है। (3) काल की अपेक्षा से - वह कभी नहीं था ऐसा नहीं, नहीं होगा, नहीं है - ऐसा भी नहीं अर्थात् नित्य है। (4) भाव की अपेक्षा से - जीवास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं और स्पर्श भी नहीं है। (5) गुण की अपेक्षा से - उपयोग गुणवाला है।२६६ ये पाँच भेद स्थानांग में भी बताये है।२६७ जीव का उपयोग यह आभ्यंतर असाधारण लक्षण कथित करने के पश्चात् जीव का बाह्य लक्षण तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति म.सा. सूत्र द्वारा बताते है - ‘परस्परोपग्रहो जीवांनाम्।'२६८ जीवों का अन्योन्य को अर्थात् एक दूसरे के लिए हित अहित का उपदेश देने द्वारा उपकार होता है। क्योंकि उपदेश के द्वारा हिताहित प्रवृत्ति जीवों में होती है। इसी बात को आचार्य हरिभद्र तत्त्वार्थ हारिभद्रीय टीका में विशेष रूप से स्पष्ट करते है - ‘परस्परस्य अन्योन्यं हिताहितोपदेशाभ्यामिति हितप्रतिपादनेन अहितप्रतिषेधेन च उपग्रहो जीवानामिति।' भविष्य को जो भव्य बना सके, वर्तमान को जो दिव्य दिखा सके ऐसा हित-मित-शक्य और न्यायसंगत उपदेश हित समझना चाहिए। उससे जो विपरीत हो वह अहित उपदेश है। अतः प्रत्येक जीव परस्पर हितोपदेश की प्रधानता उसका प्रतिपादन जिन भावों की प्रधानता के साथ किया जाता, साथ ही अहित का प्रतिषेध भी उन्हीं भावों की पराकाष्ठा के साथ करना चाहिए। उपदेश के द्वारा जीवों का जैसा हित होता है वैसा धन-धान्यादिक बाह्य वस्तुओं के द्वारा नहीं हो पाता है। अतः उसी को यहाँ मुख्यतया उपकाररूप से बताया है। यहाँ उपकार का अर्थ निमित्त है। इसलिए अहितोपदेश एवं अहितानुष्ठान को भी यहाँ उपकार शब्द से कहा है। यह जीव का साधारण लक्षण है।२६९ जीव द्रव्य का अवगाह लोककाश के जितने प्रदेश में है उनके असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण-लोक आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय 136 )