Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ गौतम ! जीव और अजीव यही काल कहा जाता है। इस सूत्र से द्रव्य से अभेदरूप में रहा हुआ वर्तनादि मुख्य विवक्षा से वर्तनादि पर्यायरूप काल को भी जीव और अजीव ही कहा है। अतः वर्तनादि द्वारा प्राप्त काल द्रव्य अलग कैसे हो सकता है। यदि पर्याय को भिन्न द्रव्य रूप स्वीकारे तो अनवस्था दोष आता है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के अनंत पर्याय होने से द्रव्य का नियतरूप बन नहीं सकेगा। इससे पर्याय रूप काल को अलग द्रव्य कहना वह असंभवित है। इस बात को इसी प्रकार स्वीकारनी होगी अन्यथा सर्वत्र व्यापक आकाश को जिस प्रकार अस्तिकाय कहा जाता है उसी तरह सर्वत्र व्यापक वर्तनादि स्वरूप वाले काल को भी अस्तिकाय रूप में स्वीकारना पड़ेगा और यह बात तो तीर्थंकरों को भी इष्ट नहीं है। उन्होंने कहा भी नहीं है कारण कि सिद्धान्त में पुनः पुनः पाँच ही अस्तिकाय कहे है। इससे काल नामका पृथक् द्रव्य नहीं सिद्ध होता है। इस विषय में अन्य तो इस प्रकार कहते है कि अहो ! सर्वत्र द्रव्यों में रहे हुए वर्तनादि पर्याय को शायद काल नाम के द्रव्य न कहो परंतु मनुष्यादि क्षेत्र में सूर्यादि की गति स्पष्ट ज्ञात होनेवाले काल परमाणु के समान कार्य द्वारा अनुमान प्रमाण से कैसे सिद्ध न हो ? जिस प्रकार द्रव्य शुद्ध एक ही शब्द से कहा जाता हो तो वह सत् यानि विद्यमान ही है। ऐसे अनुमान प्रमाण से भी काल नामका छट्ठा द्रव्य सिद्ध होता है। उसे कौन रोक सकता? ___ जो काल नामका अलग द्रव्य न हो तो उस काल के समयादि जो विशेष है वह कैसे कह सकेंगे? क्योंकि सामान्य का अनुसरण करनेवाले ही विशेष होते है। अर्थात् सामान्य के बिना विशेष नहीं हो सकते। ___ जो पृथ्वी पर नियामक कालरूप भिन्न द्रव्य न हो तो वृक्षों का एक ही साथ में पत्र, पुष्प और फल की उत्पत्ति होनी चाहिए। ___ बालक का शरीर कोमल, युवान पुरुष का शरीर देदीप्यमान और वृद्ध का शरीर जीर्ण होता है। यह सभी बाल्यादि अवस्था काल के बिना कैसे घटित होगी। छः ऋतुओं का अनेक प्रकारका परिणाम पृथ्वी पर अत्यंत प्रसिद्ध है। वह भी काल के बिना संभवित नहीं है। विविध प्रकार का ऋतुभेद जगत में प्रसिद्ध है। वह हेतु बिना नहीं हो सकता है। जिससे काल ही उसका कारण है। जैसे कि आम्र आदि वृक्ष अन्य सभी कारण होने पर भी फल रहित होते है। इससे वे विविध शक्तिवाले कालद्रव्य की अपेक्षा रखते है। कालद्रव्य यदि न स्वीकारे तो वर्तमान, भूत, भविष्य का कथन भी नहीं होगा तथा पदार्थों का परस्पर मिश्र हो जाने की संभावना बन जायेगी। कारण कि पदार्थों का नियामक काल न हो तो अतीत अथवा अनागत पदार्थ भी वर्तमान रूप में कह सकते है। उससे नियामक काल है ही यह मानना योग्य है।३३८ / तथा काल नामका छट्ठा द्रव्य उपाध्याय यशोविजयजी कृत द्रव्य-गुण-पर्याय के रास में भी उल्लिखित है। / आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 150 )