Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अधर्मास्तिकाय से जीवों का स्थान, निषीदन, त्वग्वर्तन (सोना) मन को एकाग्र करना आदि तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी स्थित भाव है वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते है। अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थितिरूप है। ‘ठाण लक्खणे णं अहम्मत्थिकाए।'१८८ इसी प्रकार का लक्षण उत्तराध्ययन सूत्र,१८९ उत्तराध्ययनबृहद् टीका,१९० स्थानांग,१९१ स्थानांगवृत्ति,१९२ प्रज्ञापनाटीका,१९३ बृहद्र्व्य संग्रह,१९४ पंचास्तिकाय,१९५ प्रशमरति,१९६ अनुयोगमलधारीयवृत्ति,१९७ जीवाजीवाभिगवृत्ति१९८ आदि में मिलता है। तथा आचार्य हरिभद्रसूरि रचित तत्त्वार्थ टीका में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का लक्षण इस प्रकार मिलता है - गतिलक्षणो धर्मास्तिकायः, स्थितिलक्षणश्च अधर्मास्तिकाय इति गतिस्थिती अपेक्षाकारणवत्यौ कार्यत्वाद् घटवत्, उपग्रहशब्दं व्याचष्टे उपग्रह इत्यादिना एते पर्यायशब्दाः।'१९९ ___ गतिमान पदार्थों की गति में और स्थितिमान पदार्थों की स्थिति में उपग्रह करना, निमित्त बनना, सहायता करना क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। उपग्रह, निमित्त, अपेक्षा, कारण ये पर्यायवाचक शब्द है। अनुयोग हारिभद्रीय वृत्ति में - गतिपरिणामपरिणतानां जीव पुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायः मत्स्यानामिव जलं, तथा स्थितिपरिणामपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भकः अधर्मास्तिकायः मत्स्यानामिव मेदिनी।२०० षड्दर्शनसमुच्चय टीका में - तत्र धर्मो गत्युपग्रकार्यानुमेयः अधर्म स्थित्युपग्रहकार्यानुमेयः / 201 शास्त्रवार्ता समुच्चय में - गगन-धर्मा-धर्मास्तिकायानामवगाहक-गन्तृ स्थातृ द्रव्य संनिधानतोऽवगाहनगति-स्थिति-क्रियोत्पत्तेर नियमेन स्यात्परप्रत्यय।२०२ उपरोक्त व्याख्या का भावार्थ यही है कि जिस प्रकार आकाश और काल स्वयं रहनेवालों तथा परिणमन करनेवाले पदार्थों में तटस्थ रूप से अपेक्षा कारण होते है उसी तरह ये धर्म और अधर्म द्रव्य स्वतः गति और स्थिति करनेवाले जीव और पुद्गलों की गति में अपेक्षा कारण होते है। ये पुद्गलों और जीवों की गति-स्थिति के निवर्तक कारण नहीं है। धर्म और अधर्म द्रव्य तो स्वयं चलने तथा ठहरनेवाले जीव पुद्गलों के तटस्थ उपकारक है। जिस प्रकार नदी या तालाब या समुद्र आदि जलाशयों में जल के स्वभावतः बहने से स्वयं चलनेवाले मछली आदि का उपकार होता है। जल उनकी गति में साधारण अपेक्षा कारण होकर ही उपकार करता है। उसी प्रकार धर्मद्रव्य भी चलनेवाले पदार्थों को गति में साधारण सहकारी होता है। जिस प्रकार परिणामिकारण मिट्टी से कुम्हार के घड़ा बनाने में दण्ड आदि साधारण निमित्त होते है या जिस प्रकार आकाश में विचरनेवाले पक्षी आदि नभचरों के उड़ने में आकाश अपेक्षा कारण उसी प्रकार धर्मद्रव्य गति में अपेक्षा कारण है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने ध्यानशतकवृत्ति में इस प्रकार लक्षण प्रस्तुत किया है - आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIINA द्वितीय अध्याय | 124)