________________ सत्ता-शक्ति तीनों काल में स्थित होती है। परन्तु उस सत्ता-शक्ति का भिन्न-भिन्न परिणमन रूप जो पर्याय वह तो कुछ समय मात्र ही होता है। क्योंकि द्रव्य में गुण सहभावी अर्थात् यावत् द्रव्यभावी होता है। और पर्याय क्रमभावी होने से हमेशा एकस्वरूप में नहीं रहता है। फिर भी द्रव्य-गुण-पर्याय ये तीनों द्रव्यत्व स्वरूप में तो एक ही है। उनका परस्पर सर्वथा भेद नहीं है तथा सर्वथा अभेद भी नहीं है। महोपाध्याय यशोविजयजी ने भेदाभेद को द्रव्य-गुण-पर्याय के रास में दृष्टांत देकर समझाया है / जैसे कि मोती की माला रूप द्रव्य में मोती पर्याय स्वरूप है। क्योंकि उस मालारूप द्रव्य में मोती भिन्न-भिन्न अनेक छोटे-बड़े होते है। जब कि सभी मोतियों की शुक्लताउज्ज्वलता रूप गुण तो उस मोती की माला में अभिन्न रूप से है ही। इससे स्पष्ट बोध होता है कि द्रव्य से तथा पर्याय से अभिन्न है तथा प्रत्येक द्रव्य अनेक गुण पर्याय से युक्त है। उसमें पर्याय को सहभावी न कहकर क्रम भावी कहा है। उससे द्रव्य किसी एक पर्याय स्वरूप में हमेशा नहीं रहता है। दूसरी रीति से विचार करे तो पुद्गल रूप से मोती को द्रव्य और माला को पर्याय तथा उज्वलता गुण तो वही रहता है / इसी प्रकार कंगन, अंगूठी, बाजुबन्ध आदि अनेक पर्याय होने पर भी गुण हमेशा वही रहता है। पर्याय अनन्त हो सकते है।५४ आचार्य हरिभद्रसूरि ने द्रव्य को अनेक पर्याय से युक्त ललितविस्तरा में कहा है - ‘एकपर्यायमनन्तपर्यायमर्थ।'१५५५ पदार्थ द्रव्यरूप है जो त्रिकाल स्थिर तथा आश्रयव्यक्ति रूप से एक है और अनन्त पर्याय से युक्त है। अर्थात् पर्याय उसके अनन्त हो सकते है तथा पर्याय भी क्रम से प्राप्त होने के कारण क्रमभावी कहा है। जबकि मोती में तथा विविध पर्यायों में मोती की शुक्लता रूप गुण तो सर्वदा सर्व पर्यायों में अवस्थित ही रहता है। उसी से सभी द्रव्य अपनी-अपनी गुणशक्ति से हमेशा नित्य और विविध परिणामी की अपेक्षा से अनित्य है। : द्रव्य के पारिणामिक भाव की शक्ति दो प्रकार की है - ऊर्ध्वता सामान्य और तिर्यग् सामान्य। ऊर्ध्वता सामान्य - जिस प्रकार मिट्टी द्रव्य में से जब घट बनता है। उस समय मिट्टी जब चक्र पर चढती है तब उसके अनेक पिंड, स्थास, कोश, कुशलादि रूप होते है। लेकिन उन सब में मिट्टी द्रव्य नियत रूप से रहता है। उसी प्रकार एक आत्म द्रव्य में उस जीव के बाल, युवा तथा वृद्धत्व अवस्था तीनों होने पर भी जीव तो निश्चित रूप से वही रहता है। इस प्रकार एकत्व की जो बद्धि उत्पन्न होती है वह ऊर्ध्वता सामान्य है। तिर्यग् सामान्य - एक ही द्रव्य के अर्थात् मिट्टी के सभी घड़े, कुंडियाँ आदि कार्यों में भी मिट्टी एक ही है / अर्थात् घड़ा, कुंडी आदि भिन्न-भिन्न होने पर भी मिट्टी रूप से एक जातित्व शक्ति है। उसी प्रकार जीवद्रव्य के नारकी, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवादि भवों में अनेक पर्याय होने पर भी जातित्व रूप से जीवद्रव्य एक ही है। * ऐसी जो एकाकार प्रतीति उत्पन्न होती है वह तिर्यग् सामान्य है। ऊर्ध्वता सामान्य शक्ति के दो प्रकार है - समुचितशक्ति तथा ओघशक्ति। समुचित शक्ति - प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने अनेक गुण पर्याय स्वरूप की अनंत शक्ति संस्थित है। परन्तु उसमें जो गुण-पर्याय रूप शक्ति है वह कार्य के समीपवर्ती होती है। वह समुचित शक्ति कहलाती है। जैसे कि - दूध, दही, मक्खन में घी की समुचित शक्ति समाविष्ट है। अर्थात् मक्खन में से शीघ्र घी की प्राप्ति होती है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / IA द्वितीय अध्याय 112]