Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ द्रव्यलक्षणंचेदं - भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तद्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् / लोक में जो भूत, भविष्य के भाव का कारण ऐसा चेतन अथवा अचेतन को तत्त्वज्ञ पुरुषों ने द्रव्य कहा आवश्यकहारिभद्रीय,१४७ और नन्दीसूत्र१४८ में भी यही लक्षण मिलता है। विशेषावश्यकभाष्य में द्रव्य के लक्षण को संप्रस्तुत करते है - 'उप्पायविगतीओऽवि दव्वलक्खणं / 149 उत्पाद, नाश और ध्रुव से जो युक्त हो वह द्रव्य कहलाता है। आचार्य सिद्धसेनसूरि ने सम्मतितर्क में द्रव्य का लक्षण बताया है - दव्वं पज्जवविजुअंदव्वविउत्ता य पज्जवा नत्थि। उप्पायट्ठिइभंगा हंदि दवियलक्खणं एयं // 150 पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय कभी नहीं हो सकते। अतः उत्पत्ति, नाश और स्थिति अर्थात् तीनों धर्मों से संयोजित द्रव्य का लक्षण है जो हमारा अनुभूत विषय है। 'लोकतत्त्व निर्णय' में आचार्य हरिभद्र ने द्रव्य सम्बन्धी निरूपण किया है - मूर्ताऽमूर्त द्रव्यं सर्वं न विनाशमेति नान्यत्वम्। तद्वेत्त्येतत्प्रायः पर्यायविनाशि जैनानाम् // 151 विश्व का विराट् स्वरूप षड्द्रव्यात्मकमय है जो मूर्त (रूपी) तथा अमूर्त (अरूपी) दोनों के संग से संस्थित है। जगत में रूपी अथवा अरूपी कोई भी मूल द्रव्य-पदार्थ कभी भी सर्वथा विनाश नहीं होता है। अर्थात् जगत में से उस द्रव्य का सर्वथा अभाव नहीं होता है। तथा मूल द्रव्य सम्पूर्ण परिवर्तित होकर अन्य-द्रव्य रूप में नहीं होता है। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय कभी नहीं बनता है। __ यहाँ द्रव्य का रूपी और अरूपी होना वह उसका (द्रव्य का) स्वयं का लक्षण है। यदि वैसा लक्षण वस्तु का न हो तो वह वस्तु को वन्ध्या के पुत्र के समान अविद्यमान जानना। अर्थात् फिर उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। जैसे कि - द्रव्यमरुप्पमरुपि च यदिहास्ति हि तत्स्वलक्षणं सर्वम् / तल्लक्षणं न यस्य तु तद्वन्ध्यापुत्रवद् ग्राह्यम् // 152 द्रव्य विषयक विमर्श स्याद्वाद सिद्धान्त में बहुत ही विलक्षण रहा है। सिद्धान्तसूत्रकार एवं श्रुतधर भगवान उमास्वाति का द्रव्य प्ररूपण प्रज्ञामय रहा है। इसी मान्यता को महत्त्व देते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है - 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्।'१५३ गुण और पर्याय ये दोनों जिसमें रहे उसको द्रव्य कहते है। अथवा गुण और पर्याय जिसके या जिसमें हो उसको गुण-पर्यायवत् द्रव्य समझना चाहिए। लेकिन इसमें यह जानना आवश्यक होगा कि द्रव्य में गुण की | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / IIIA द्वितीय अध्याय | 111]