Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ने भगवान गौतम को थोडी दूरी से जाते हुए देखा और एक दूसरे से परस्पर कहा - हे देवानुप्रियों ! पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी यह बात हम नहीं जानते। यह गौतम अपने से थोडी दूरी पर ही जा रहे है। इसलिए गौतम से यह अर्थ पूछना श्रेयस्कर है। इस प्रकार परस्पर परामर्श करके वे भगवान गौतम के पास आये और उन्होंने भगवान गौतम से इस प्रकार पूछा- हे गौतम ! आपके धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते है। धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय आदि सम्पूर्ण चर्चा गौतम से ही की। फिर पूछा - हे गौतम! यह किस प्रकार ? तब भगवान् गौतम ने अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रियो ! हम अस्तिभाव को नास्तिभाव नहीं कहते। इसी प्रकार नास्तिभाव को अस्तिभाव नहीं कहते। हे देवानुप्रियों ! हम सभी अस्तिभावों को अस्तिभाव कहते है और नास्तिभावों को नास्तिभाव कहते है, इसलिए हे देवानुप्रियों! आप स्वयं ज्ञान द्वारा इस बात का विचार करो / इस प्रकार कहकर गौतमस्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा कि जैसे भगवान ने कहा है वैसा ही है। गौतमस्वामी गुणशील चैत्य में आकर, भक्तपान दिखलाया और वन्दन करके उपासना करने बैठ गये। जिस समय भगवान महावीर धर्मोपदेश देने में प्रवृत्त थे उसी समय कालोदयी वहाँ शीघ्र आया। हे कालोदयिन् ! इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कालोदयि से इस प्रकार पूछा - हे कालोदायी ! किसी समय तुम सभी ने एकत्रित होकर पंचास्तिकाय के बारे में विचार किया था / क्या यह बात यथार्थ है ? कालोदायी ने कहा - हाँ ! यथार्थ है। हे कालोदयिन् ! पंचास्तिकाय सम्बन्धी बात सत्य है। मैं धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय पर्यन्त पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करता हूं। उनमें से चार अस्तिकायों को अजीवास्तिकाय अजीव रूप कहता हूं। यावत् पूर्व कथितानुसार एक पुद्गलास्तिकाय को रूपी अजीवकाय कहता हूं। __ तब कालोदयीने श्रमण भगवान महावीरस्वामी से कहा कि - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय - इन अरूपी अजीवकायों के उपर क्या कोई बैठना, सोना, खडे रहना, नीचे बैठना और इधर-उधर आलोटना इत्यादि क्रियाएँ कर सकता है। हे कालोदयिन् ! यह अर्थ आप योग्य नहीं कर रहे है। केवल पुद्गलास्तिकाय ही रूपी अजीवकाय है। उस पर बैठना, सोना आदि क्रियाएँ करने में कोई भी समर्थ है। हे भगवन् ! इस रूपी अजीव पुद्गलास्तिकाय में क्या जीवों को पापफल-विपाक सहित अर्थात् अशुभ फल देनेवाले पाप कर्म लगते है ? हे कालोदयिन् ! यह अर्थ योग्य नहीं है। किन्तु अरूपी जीवास्तिकाय में ही जीव को पापफल विपाक सहित पापकर्म लगते है। अर्थात् जीव ही पापकर्म संयुक्त होते है। भगवान की वाणी सुनकर कालोदयी को बोध प्राप्त हुआ और उसने भगवान के पास प्रव्रज्या अंगीकार | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIRAIN द्वितीय अध्याय | 119]