Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अथवा 'द्रवस्यलक्षणं स्थिति' स्थिति यह द्रव्य का लक्षण है। उपाध्यायजी ने स्थिति को द्रव्य का लक्षण स्वीकारा है और उन्होंने अपनी टीका में यह भी लिखा है कि कोई आचार्य गति भी द्रव्य का लक्षण स्वीकारते है। जैसे कि - ‘गइपरिणयं गई चेव, णियमेण दवियमिच्छंति।' कुछ लोक नियम से गति परिणत को ही द्रव्य मानते है। अर्थात् द्रव्य की गति अर्थात् परिवर्तन वह द्रव्य निश्चय से कहलाता है।१३८ तर्क निष्णात महोपाध्याय यशोविजयजी म.सा. ने भी द्रव्य-गुण-पर्याय के रास में द्रव्य का लक्षण इसी प्रकार प्रस्तुत किया है। गुण पर्यायतणू जे भाजन एकरूप त्रिहुकालि रे। तेह द्रव्य निज जाति कहिइ जस नही भेद विचलाई रे / / 139 प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुण और पर्याय की त्रिकालिक सत्ता शक्ति से हमेशा सम्पन्न रहेता है। अर्थात् किसी भी द्रव्य के स्वयं के गुण स्वयं से विच्छेद नहीं होते है। फिर भी व्यवहार नय से परस्पर संयोग संबंध होने से परपरिणामी रूप है। जो जगत में अनेक चित्र-विचित्र परिणाम प्रत्यक्ष दिखते है। फिर भी कोई भी पुद्गलद्रव्य कभी भी जीव रूप में नहीं बनता है। उसी प्रकार जीव द्रव्य पुद्गल रूप में नहीं बनता है। अतः जो-जो निजनिज जाति अनेक जीवद्रव्यों, अनंता पुद्गलद्रव्यों तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल छः ही द्रव्यों हमेशा अपने-अपने गुण भाव में परिणमित होते है। फिर भी व्यवहार से संसारी जीवों को कर्म संयोग से जो पुद्गल परिणामिता है वह संयोग संबंध से ही है। द्रव्य की इसी प्रकार की व्याख्या उत्तराध्ययन सूत्र,१४० न्यायविनिश्चय,१४१ परमात्मप्रकाश१४२ में भी मिलती है। भगवती सूत्र की टीका में महातार्किक सिद्धसेन दिवाकरसूरि द्रव्य के विषय में सर्वज्ञ परमात्मा को प्रणेता कहकर द्रव्य का लक्षण निर्दिष्ट करते है - ‘एतत् सूत्रसंवादि सिद्धसेनाचार्योऽपि आह - उप्पजमाणकालं उप्पण्णं विगयय विगच्छन्तं दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ'१४३ सूत्रसंवादि आचार्य सिद्धसेन अपने पूर्वजों अर्थात् तीर्थंकरों को द्रव्य के प्ररूपक कहकर द्रव्य की विशिष्टता सिद्ध करते है। वे कहते है कि मैं नहीं लेकिन सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान कहते है कि द्रव्य त्रिकाल विशेष है। अर्थात् द्रव्य भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में अवस्थित रहता है। वह द्रव्य है। श्रीमदावश्यकसूत्रनियुक्ति की अवचूर्णि में द्रव्यलक्षण - ‘अतो भूतस्य भाविनोवा भावस्य हि कारणमिति द्रव्यलक्षणसम्भवात् द्रव्यमिति।१४४ भूत और भविष्य के भाव का जो कारण है वह द्रव्य कहलाता है। बहुश्रुतदर्शी आ. हरिभद्रसूरि ने नन्दीवृत्ति,१४५ अनुयोग हारिभद्रीय वृत्ति१४६ में भी इस प्रकार का लक्षण किया है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII IIIIIA द्वितीय अध्याय | 110]