Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ तनिक विस्तृत जबकि ‘षड्दर्शन समुच्चय' पद्य एवं संक्षिप्त है। ‘षड्दर्शन समुच्चय' की तर्क रहस्यदीपिका टीका' के कर्ता आ. गुणरत्नसूरि है जो आ. देवसुन्दरसूरि के शिष्य रूप से अपने को प्रस्तुत टीका अधिकारों के अन्त में दी गई प्रशस्ति में प्रख्यात है। इसी ग्रन्थ पर सोमतिलकसूरि ने वृत्ति लिखी है तथा वाचक उदयसागर ने अवचूरि रची है। ब्रह्मशान्तिदासकृत अवचूर्णि भी है। वृद्धि विजय कृत विवरण है। उपरोक्त पाँच ग्रन्थों में से सर्वदर्शनसंग्रह के ऊपर ही आधुनिक व्याख्या है और वह बहुत विशद भी है। दूसरे ग्रन्थों के ऊपर कोई टीकाएँ हो तो वह ज्ञात नहीं है। ___ आचार्य हरिभद्रसूरिने 87 कारिकाओं में षड्दर्शन समुच्चय समाप्त किया था किन्तु उसके प्रकरणों का निर्देश नहीं किया। आचार्य गुणरत्नसूरिने विषय विभाग की दृष्टि से इसे छह अधिकारों में विभक्त कर दिया और विस्तृत टीका लिखी। इसका हिन्दी विवेचन पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने किया है। 4. अनेकान्त जयपताका - अनेकान्त दर्शन के प्रतिपादन का यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, आचार्य हरिभद्र इस ग्रन्थ में अनेकान्त दर्शन के उद्भट्ट विद्वान् सिद्ध हुए है, साथ -साथ उनके उत्तरकालीन बौद्ध विद्धानों धर्मकीर्ति आदि ने भी इनके वैदुष्य को मान्य किया है। मनीषी व्यक्ति वही मान्य होता है जिसकी कृतियाँ कुछ अद्भुत विषय का निरूपण करती है। अनेकान्त जयपताका' एक ऐसी कृति बनी जिसको वैदिक विद्वानों ने भी सामादृत की / हरिभद्र के उत्तरकालीन जितने भी न्याय दर्शन के निष्णात व्यक्ति हुए उन सभी ने अपने-अपने ग्रन्थों में अनेकान्तजयपताका का समुल्लेख कर आचार्य हरिभद्र को चिरस्मरणीय बना दिया है। ___ अनेकान्तजय पताका' आचार्य हरिभद्र की मेधा-छवि है जिसमें उन्होंने अपनी प्रमाण मनस्विता को प्रसर्जित करके प्रज्ञावानों के चित्त को स्पर्श करने का सौष्ठव प्रगट किया है / यह एक ऐसी कृति हरिभद्र की हृदयवाहिनी बनी जो अनेकान्तदर्शन के अनुराग को आविर्भूत करती रही है इसकी भाषा न्यायदर्शन के नियमों में निराली होकर नित्य नवीन रही है, भाषा और भाव दोनों को अभिव्यक्त करने के लिए आचार्य श्री ने सम्पूर्ण दार्शनिकता को दिग्गोचर बना दिया है। दूरदर्शिता एवं सिद्धांत की प्रामाणिकता से यह ‘अनेकान्तजय पताका' अपने आप में एक अपूर्व रही है। ग्रन्थकार ने विषय सौष्ठव को सुन्दरता से चित्रित करते हुए सत-असत् को उल्लेखित किया; सामान्यविशेष की मान्यताओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया, नित्य-अनित्य को सुयुक्तियों से समझाया, साथ में अभिलाप्य अनभिलाप्य को अपनी निराली भाषा में संदर्भित कर अनेकान्तजयपताका का मूल्य अभिवर्द्धित किया है। कहीं-कहीं अपने दर्शन के अनुराग में मोहित बने हुए परदर्शनकारों को सरल सुन्दर भाषा में कहा - “अहो दुरन्तः स्वदर्शनानुरागः प्रत्युक्तमपि नावधारयति:" बड़े खेद की बात है कि अपने दर्शन का राग दुरन्त आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII प्रथम अध्याय 56 |