________________ होता है, समझाने पर भी सत्य को धारण नहीं करते है। इस प्रकार अनेकान्तवाद जैन दर्शन का मौलिक सिद्धान्त है जिसमें सभी दर्शनों का समावेश हो जाता है / 100 आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ के सिवाय इस विषय को प्रदर्शित करने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे है जो आज अप्राप्य है 1. अनेकान्त प्रघट्ट 2. अनेकान्त पताकावृत्ति 3. अनेकान्त सिद्धि 4. अनेकान्त प्रकाश / उपाध्याय यशोविजयजी आदि महापुरुषोंने भी इस विषय में ग्रन्थ रचना की है उपा. यशोविजयजी की अनेकान्तव्यवस्था प्रकरण' अनेकान्तवाद प्रवेश है तथा आ. नेमिश्वरजी की 1. अनेकान्तव्यवस्था विवरण 2. अनेकान्ततत्त्वमीमांसा टीका 3. अनेकान्ततत्त्वमीमांसा है। अनेकान्त जय पताका ग्रन्थपर आचार्य श्री की स्वोपज्ञ टीका है ! टीका में मूल ग्रन्थ को समझने के लिए दिक्प्रदर्शन किया गया है। उपरोक्त आचार्य श्री की साहित्य रचना को ज्ञात कर पं. सुखलालजी के मुख से 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' यह उद्गार निकले। लगभग डेढ़-सौ वर्ष पहले पाश्चात्य संशोधक विद्वानों का ध्यान पुरातत्त्व साहित्य आदि ज्ञान साधनों से समृद्ध पौरस्त्यभण्डारों की ओर अभिमुख हुआ और प्रो. किल्हॉर्न, ब्युलर, पिअर्सन, जेकोबी जैसे विद्वानों ने भण्डार देखे और उनकी समृद्धि का मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया। इसके परिणाम -स्वरूप भारत में तथा भारत के बाहर ज्ञान की एक नई दिशा खुली / इस दिशोद्घाटन के फलस्वरूप आचार्य हरिभद्र, जो कि अब तक मात्र एक विद्वान् और उसी में अवगत थे, सर्वविदित हुए। जेकोबी, लॉयमान, विन्तर्नित्स, सुवाली और शुबिंग आदि अनेक विद्वानोंने भिन्न-भिन्न प्रसंगो पर आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ एवं जीवन के विषय में चर्चा की है। जेकोबी, लॉयमान, शुबिंग और सुवली आदि विद्वानों ने तो हरिभद्र के भिन्न-भिन्न ग्रन्थों का सम्पादन ही नहीं, बल्कि उनमें से किसी का तो अनुवाद या सार भी दिया है। जैसे कि डॉ हर्मन जेकोबी ने 'समराइच्चकहा' का सम्पादन किया है तथा उसका अंग्रेजी में सार भी दिया है। इस प्रकार हरिभद्र जर्मन, अंग्रेजी आदि पाश्चात्य भाषाओं के ज्ञाता विद्वानों के लक्ष्य पर एक विशिष्ट विद्वान् के रूप से उपस्थित हुए। दूसरी ओर पाश्चात्य संशोधन दृष्टि के जो आन्दोलन भारत में उत्पन्न हुए उनकी वजह से भी हरिभद्र के ग्रन्थों की ओर आकर्षित हुए। इस पुरुषार्थी विद्वान् ने हरिभद्र के जो ग्रन्थ हाथ में आये और जो उनकी मर्यादा थी तदनुसार उनमें से खास-खास ग्रन्थों के गुजराती अनुवाद भी प्रस्तुत किये। इस तरह देखते है तो नव-युग के प्रभाव से आचार्य हरिभद्र किसी एक धर्म-परम्परा के विद्वान् न रहकर साहित्य के अनन्य विद्वान् और उपासक के रूप में विद्वन्मण्डल में स्थान प्राप्त किया।१०१ ____आज भी अनेक आचार्य, पन्यास , मुनिभगवंतो पण्डितवों का ध्यान विशेष हरिभद्र के ग्रन्थों पर आकर्षित हो रहा है तथा उनके गुजराती , हिन्दी अनुवाद तथा ग्रन्थ संपादन का प्रबल पुरुषार्थ कर रहे। आज इनके ग्रन्थ जैन शासन में न रहकर कॉलेजों के पाठ्यक्रम में भी जुड गये है। 5. न्यायप्रवेश वृत्ति - जैनदर्शन अथवा अन्यदर्शन में श्रुतज्ञान का स्थान महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञान | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII प्रथम अध्याय 57