Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ तालमेल बैठ जाता था तथा जब द्रव्यार्थिक नय से चिंतन करते थे तब नित्यवादिओं के पक्ष में समाविष्ट हो जाते थे, अतएव इस बात को लेकर ये अन्य विषयों से भी परिचित होना चाहते थे कि जैनदर्शन से अन्यदर्शनों का कितना मतैक्य है तथा कितना विभेद और यह जानने केलिए अन्य दर्शनों का अध्ययन अत्यंत आवश्यक था। इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति अनेक नयसिद्धान्तों की रचना कर उनके साथ सम्बन्ध जोड़ा इस प्रवृत्ति फल स्वरूप आचार्यश्री हरिभद्रसूरिने “षड्दर्शन समुच्चय” ग्रन्थ की रचना की, जिसमें सभी दर्शनों को समाविष्ट किये। षड्दर्शन समुच्चय में छहों दर्शनों का सामान्य परिचय दिया है जिस रूप में आचार्य हरिभद्रसूरिने दर्शनों की छ: संख्या मान्य रखी है वह उनकी ही प्रज्ञाबल का सूचक है। सामान्य रूप से छ: दर्शनों में वैदिक दर्शन ही गिने जाते है। किन्तु आचार्यश्री को छ: दर्शन में जैन तथा बौद्ध दर्शनभी शामिल करना था / अतएव उन्होंने सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा इन छः वैदिक दर्शनों के स्थान में छ: संख्या की पूर्ति इस प्रकार की - बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक, जैमनीय ये ही दर्शन है, इन्ही में सभी दर्शनों का संग्रह होता है और इन छ: दर्शनों को आस्तिकवाद की संज्ञा दी। यह निदर्शित किया गया है कि कुछ के मत से नैयायिक और वैशेषिकों के मत को भिन्न नहीं माना गया अतएव उनके मतानुसार पाँच आस्तिक दर्शन और छ: संख्या की पूर्ति के लिए वे लोकायत (चार्वाक्) दर्शन को जोड़ देते है अतएव यहाँ लोकायत दर्शन का भी निरूपण करेंगे। षड्दर्शन संख्या पूर्यते, तन्मते किल। लोकायतमत क्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् / / 9 आचार्यश्री ने छ: आस्तिक दर्शनों की तथा एक नास्तिक दर्शन का प्रस्तुतीकरण षड्दर्शन समुच्चय में किया है इससे स्पष्ट हो जाता है कि वेदान्तदर्शन या उत्तरमीमांसा को पृथक् दर्शन के रूप में स्थान नहीं दिया इसका कारण यह भी हो सकता है कि उस समय इन दर्शनों ने अपना प्रतिष्ठित स्थान दर्शन रूप में नहीं पाया होगा। - “षड्दर्शन-समुच्चय' को अनुसरण करके अन्य दर्शनकारों और जैनाचार्योंने दर्शन संग्राहक ग्रन्थ लिखे है और उसमें उन्होंने हरिभद्र जैसा ही दर्शनो का परिचय दिया है। हरिभद्रसूरि के पश्चात् उनके षड्दर्शनसमुच्चय का स्मरण करानेवाली प्रायः पाँच कृतियों का उल्लेख मिलता है उनमें से एक अज्ञातकृर्तक ‘सर्वसिद्धान्त प्रवेशक' है दूसरी ‘सर्वसिद्धान्तसंग्रह' है जिसके रचयिता शंकराचार्य कहे जाते है तीसरी कृति ‘सर्वदर्शनसंग्रह' है जो माधवाचार्यकृत है और सुविदित है चौथी कृ. जैनाचार्य राजशेखर की उसका नाम भी ‘षड्दर्शन समुच्चय' (प्रकाशक श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, नं. 17 बनारस) ही है और पांचवी कृति माधवसरस्वती कृत 'सर्वदर्शनकौमुदी'। सर्वसिद्धान्तप्रवेशक के कर्ता का नाम यद्यपि अज्ञात है, फिर भी वह जैनकृति है इसमें तो सन्देह नहीं है, क्योंकि उसके मंगलाचारण में ही 'सर्वभावप्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरम्' ऐसा कहा है। यह कृति गद्य में और | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII VA प्रथम अध्याय | 55