________________ सत्य का साक्षात्कार करवाता है। जिसको शास्त्रकारों ने वर्णित कर विशेष स्थान दिया है उसी सत् को प्रत्येक दार्शनिक ने शिरोधार्य कर सत्-चित्-आनंद रूप से जाना है। जैन दर्शनने इसी सत् को अनाग्रह भाव से अंगीकार कर वास्तविकता से विधिवत् मान्य किया है। यह सत् शब्द किसी सम्प्रदाय विशेष का न बनकर सर्वत्र अपनी स्थिति को समूचित रुप से स्थिर रखता रहा है। चाहे उपनिषद् साहित्य हो अथवा त्रिपिटक निकाय हो, आगमिक आगार हो। ऐसे सत् को आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने दार्शनिक दृष्टिकोण का सहयोगी बनाया है। जिससे सम्पूर्ण जीवन हरिभद्र का सत्मय बनकर समाज में प्रशंसित बना, पुरोगामी रहा है और पुरातत्त्व का पुरोधा कहा गया है। ऐसे सत् को सर्वज्ञों ने श्रुतधरोने और शास्त्रविदों ने ससम्मान दृष्टि से प्रशस्त स्वीकार किया है। लोकवाद भारतीय दर्शन की चिन्तन-धाराओं में अनेक भारतीय दार्शनिक हुए। जिन्होंने दार्शनिक तत्त्वों पर अपना बुद्धि विश्लेषण विश्व के समक्ष दिया। दर्शन तत्त्वों में लोक का भी अपना अनूठा स्थान है। जिसे भारतीय दार्शनिक तो मानते ही साथ में पाश्चात्य विद्वानों ने और दार्शनिकों ने भी स्वीकृत किया है। तथा जैन आगमों में लोक की विशालता का गंभीर चिन्तन पूर्वक विवेचन मिलता है। लोक विषयक मान्यता विभिन्न दर्शनकारों की भिन्न-भिन्न है। इन सभी मान्यताओं को आगे प्रस्तुत की जायेगी। यहाँ सर्व प्रथम आगमों तथा ग्रन्थों में लोक का प्रमाण-स्वरूप, भेद आदि जानना आवश्यक होगा। समर्थ तार्किकवादी आचार्य हरिभद्रसूरि दशवैकालिक की टीका में लोक के प्रमाण को निदर्शित करते हुए कहते है - 'लोकस्य चतुर्दश रज्वात्मकस्य।'४५ पाँचवे कर्मग्रंथ में भी कहा है - 'चउदसरजू लोओ, बुद्धिकओ सत्तरज्जूमाणघणो'४६ अर्थात् लोक का प्रमाण चौदह राज है। यही बात भगवती, आवश्यक अवचूर्णि,८ अनुयोगवृत्ति,४९ बृहत्संग्रहणी, लोकप्रकाश,५१ शान्तसुधारस,५२ आवश्यकनियुक्ति (शिष्याहिताटीका)५३ में है। लोक का स्वरूप - चौदह राजलोक का स्वरूप इस प्रकार स्थानांग-समवायांग में मिलता है - अधोलोक की सातों नरक एक-एक रज्जु प्रमाण है। प्रथम नरक के ऊपर के अन्तिम अंश से सौधर्मयुगल तक एक रज्जु होता है। उसके ऊपर सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प एक रज्जु उसके ऊपर ब्रह्म और लांतक ये दोनों मिलकर एक रज्जु, उसके ऊपर महाशुक्र और सहस्रार इन दोनों का एक रज्जु, उसके ऊपर आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये चारों मिलाकर एक रज्जु, उसके बाद नव ग्रैवेयक का एक रज्जु, तत्पश्चात् पाँच अनुत्तर और सिद्धशिला का एक रज्जु / | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII / द्वितीय अध्याय | 93 ]