Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ लोक का आकार बताया है। जीवाजीवा द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोक पुरुषोऽयम् / वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थ कर युग्मः // 105 ध्यानशतकवृत्ति में ‘लोको वैशाखाकारो वैशाखक्षेत्राकृतिज्ञेयः / 106 जीव-अजीव षड्विध द्रव्यों से युक्त यह लोकपुरुष है, दो हाथ कमर पर रखकर कोई पुरुष वैशाख संस्थान के समान पाँव फैलाकर खडा हो इसके समान यह लोक है। ___ इसी प्रकार लोक का आकार तत्त्वार्थभाष्य, योगशास्त्र, प्रशमरति, लोकप्रकाश, शान्तसुधारस आदि ग्रन्थों में बताया गया है। तथा लोकप्रकाश और बृहत्संग्रहणी में इसी आकार को दूसरे रूप में प्रस्तुत किया है। चिरकाल से उर्ध्व श्वास लेने के कारण वृद्धावस्था के योग से मानो बहुत श्रमित हो गया हो। उसकी विश्रान्ति के लिए श्वास को उतारकर शान्ति को चाहता हुआ पुरुष कमर पर हाथ देकर, पाँव फैलाकर खडा हो वैसी लोकाकृति है। ___अथवा त्रिशराव, संपुटाकार अर्थात् एक शराव उल्टा, दूसरा शराव सीधा, उसके उपर एक उल्टा शराव रखने से भी लोक की आकृति बनती है। अथवा मंथन दोहन कर रही युवान स्त्री का जैसा आकार हो, वैसा आकार भी लोक का है। अथवा यह लोक उत्पत्ति, स्थिति और लयरुप त्रिगुणात्मक छः द्रव्य है। इससे सम्पूर्ण भरा हुआ है और अपने मस्तक पर सिद्धपुरुष रहा हुआ होने से हर्ष में आकर मानो नृत्य करने के लिए चरण फैलाकर खडा हो ऐसा लगता है। सम्पूर्ण लोक का आकार इस प्रकार है / लेकिन क्षेत्रलोक से इसके तीन विभाग ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक करते है। तब तीनों के आकार विभिन्न होते है। .' तत्त्वार्थ भाष्य तथा तत्त्वार्थवृति में इस प्रकार वर्णन मिलता है - 'अधोलोक गोन्धराकृतिः तिर्यग्लोको झल्लाकृतिः एव मूर्ध्वलोको मृदङ्गाकृति।'१०७ इनमें अधोलोक का आकार आधी गोन्धरा के समान अर्थात् गाय की ग्रीवा के समान है। नीचे की तरफ विशाल चौडी और ऊपर की तरफ क्रम से संक्षिप्त है। अधोलोक अथवा नीचे की सातभूमियों का यह आकार है। तिर्यग्लोक का आकार झालर के समान है तथा ऊर्ध्वलोक की आकृति मृदङ्ग के समान है। क्षेत्रलोक की आकृति प्रशमरति,१०८ योगशास्त्र,१०९ भगवती,११० ध्यानशतकवृत्ति,१११ लोकप्रकाश११२ में भी समुल्लिखित है। लेकिन अधोलोक की आकृति के विषय में किसी ने कुंभी (लोकप्रकाश में), भगवती में अधोमुखशरावसंपुट, योगशास्त्र में वेत्रासन आदि अलग-अलग बताई है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII द्वितीय अध्याय | 101]