Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अधोलोक में नारकों, परमाधामिओं, भवनपति देव-देविओं आदि के स्थान है। ति लोक में व्यंतरों, मनुष्यों, असंख्यद्वीप, समुद्रों और ज्योतिषदेवों आये हुए है। और तिर्छालोक में मुक्ति प्राप्ति के साधन सुलभ है। ऊर्ध्वलोक में सदानंद निमग्न उत्तम कोटि के वैमानिक देवो, उनके विमान आये हुए है और उसके बाद सिद्ध परमात्मा से वासित सिद्धशिलागत सिद्ध परमात्माएँ आई हुई है। भगवती में अलोक की आकृति खाली गोले के समान है।११३ आचार्य हरिभद्र ने लोकतत्त्व निर्णय में एक मनोज्ञ सुश्लोक रच करके लोकतत्त्व विषयक नानाविध मान्यताओं को उल्लिखित की है - एकरसमपि वाक्यं, वक्तुर्वदनाद्विनिःसृतं तद्वत्। नानारसतां गच्छति, पृथक-पृथक भावमासाद्य / / 114 वक्ता के मुख से निकला हुआ एकरस से युक्त भी वाक्य को श्रोता भिन्न-भिन्न भावों को प्राप्त करके अनेक रसता को प्राप्त करता है। उसी प्रकार इस एक लोक के विषय में भी यही बात घटित होती है। सृष्टि के सर्जन में भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ - इस लोक का कोई कर्ता है और उसीसे रचित यह लोक है ऐसी मान्यता सृष्टिवादियों की है। सृष्टिवादियों की जो मान्यताएँ मिल रही है वे केवल पूर्वापरविरोध से युक्त है। तथा युक्तियों से निराधार है। क्योंकि जगत की उत्पत्ति सत् से स्वीकार करे अथवा असत् से। यदि सत् से संभवित मानते है तो सत् स्वयं सर्जन (उत्पत्ति) क्रिया से रहित है और असत् से तो विचारणा भी विसंगत है। अतः यह लोक स्वाभाविक है। सत् को यदि सचमुच द्रव्य रूप में दृष्टिगत करे तो वह भी शाश्वत है। पर्यायों से ही परिवर्तन आता है वस्तुतः नहीं, ऐसी मान्यता जैनाचार्यों की है। इस सृष्टि के सर्जक ब्रह्मा है। पालक विष्णु है। संहारक शिव है। इस प्रकार आरंभ और अंत जगत विषयक उपलब्ध होता है। परंतु जैन मान्यता इसे स्वीकार नहीं करती है। क्योंकि लोकस्थिति ही नहीं थी तो उनकी स्थिति कैसे संभवित हो सके। वैदिक पौराणिक मत की परंपरा में महर्षि काश्यप को मनुष्य आदियों के जन्मदाता माने गये है। कतिपय विद्वान् दक्ष प्रजापति त्रिलोकी को रचनाकार कहते है। यदि कश्यप दक्ष आदि को जगत के रचयिता स्वीकार कर लेते है तो लोक अभाव में उनके अस्तित्व का निवास कहा था। सांख्यवादियों की सृष्टि विषयक अवधारणा इस प्रकार से रही है कि सभी अव्यक्त से ही उद्भवित होते है। आचार्य हरिभद्रसूरि इस विषय को लेकर लोकतत्त्व निर्णय में प्रश्नवाची वाक्य उपस्थित करते है। यदि धरा, अम्बरादि का विनाश हो जाता है तो अव्यक्त आदि का क्या स्वरूप रहेगा? और बुद्धि कैसी बन जायेगी? तथागत बुद्ध के अनुयायी शून्यवादी एवं विज्ञानवादी रहे है। उन्होंने इस लोक को विज्ञानरूप से और | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIINA द्वितीय अध्याय | 102 )