Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ का उल्लेख मिलता है। ये आठ प्रकार के निक्षेपा की अपेक्षा से हैं। नामंठवणादविए, खित्ते काले भवे या भावे य। , पज्जवलोए य तहा, अट्ठविहो लोयनिक्खेवो। (1) नामलोक (2) स्थापनालोक (3) द्रव्यलोक (4) क्षेत्रलोक (5) काललोक (6) भवलोक (7) भावलोक (8) पर्यायलोक। संक्षेप से लोक के भेद-प्रभेद का वर्णन किया। विस्तार से इसका स्वरूप अभिधान राजेन्द्रकोष एवं लोकप्रकाश आदि में मिलता है। वह इस प्रकार है - केवलज्ञान के प्रकाश द्वारा जो देखा जाता है वह लोक नाम-स्थापना द्रव्य के भेद से तीन प्रकार का है। (1) नाम - इंद्र के नाम के समान व्यक्ति विशेष का लोक ऐसा नाम वह नामलोक है। (2) स्थापना - लोक का चित्र वह स्थापना लोक। (3) द्रव्यलोक - जीव और अजीवमय लोक द्रव्यलोक। तीन प्रकार के भावलोक का स्वरुप - 98. (1) भावलोक दो प्रकार का है। आगम से और नोआगम से। आगम से लोक के चिंतन में उपयोग अथवा उपयोगवान् पुरुष-जीव और नोआगम से ज्ञान आदि भावलोक कारण कि नो शब्द का मिश्रवचनपना है। ये ज्ञानादि तीन प्रत्येक अन्योन्य सापेक्ष है। मात्र आगम ही नहीं और अनागम भी नही, उसमें ज्ञान ऐसा जो लोक वह ज्ञानलोक। ज्ञानलोकं की भावलोकता क्षायिक और क्षायोपशमिक भावरुपता है और क्षायिकादि भावों को भावलोक द्वारा कहा हुआ है। जैसे कि - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक छः प्रकार से भावलोक है। इसी प्रकार दर्शनलोक और चारित्रलोक जानना। तीन प्रकार का क्षेत्र लोक - यहाँ बहु समभूमिभाग रुप रत्नप्रभा के भाग के उपर मेरु के मध्य में आठ रुचक प्रदेश होते है। वे रुचक गाय के स्तन के आकार के होते है। उसके उपर के प्रतर के ऊपर नवसो योजन पर्यंत जहाँ तक ज्योतिश्चक्र का उपर का भाग है। वहाँ तक तिर्यंच लोक है / उससे आगे ऊर्ध्वभाग में रहने से ऊर्ध्वलोक कुछ न्यून सात राज प्रमाण है। रुचक प्रदेश के नीचे के प्रतर के नीचे जहाँ तक नव सौ योजन है वहाँ तक तिर्यक्लोक है। उससे आगे नीचे के भाग में रहने से कुछ अधिक सात राज प्रमाण अधोलोक है। अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के मध्य में अठारह सौ योजन प्रमाण तिर्यग् भाग में स्थित होने से तिर्यग्लोक है।९९ - अथवा - अहवा अह परिणामो, श्वेतणुभावेण जेण ओसन्नं / असुहो अहोत्ति भणिओ, दव्वाणं तेण अहोलोगो।। अधोलोक - ‘अध' शब्द अशुभवाचक है। उसमें क्षेत्र के स्वभाव से प्रायः द्रव्यों के अशुभ परिणाम होते है। उससे अशुभलोक अधोलोक कहलाता है। उड्डे उवरिं जं ठिय, सुहखेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा। . [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI अद्वितीय अध्याय | 97