Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ है या अंनित्य। क्योंकि विश्व के चराचर जगत में कोई द्रव्य सत् रूप में नित्य पाया जाता है तो कोई द्रव्य सत् रुप में अनित्य जैसे कि - सत् रुप में नित्य द्रव्य आकाश है तो सत् रूप में अनित्य द्रव्य घटादिक / अतः संशय उत्पन्न होता है कि सत् को कैसा समझा जाए? जो सत् को नित्यानित्य मान लिया जाये तो पहले जो 'नित्यावस्थितान्यरुपाणि'४° सूत्र में द्रव्य के नित्य, अवस्थित और अरुप तीन सामान्य स्वरूप कहा है उस नित्य का क्या अर्थ ? इसका समाधान वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थ में एवं आ. हरिभद्रसूरि तत्त्वार्थ की टीका में करते हैं - . 'तदभावाव्ययं नित्यम्'४१ यहाँ नित्य शब्द का अर्थ भाव अर्थात् परिणमन का अव्यय अविनाश ही नित्य है / सत् भाव से जो नष्ट न हुआ है और न होगा उसको नित्य कहते है। इस कथन से कूटस्थ नित्यता अथवा सर्वथा अविकारिता का निराकरण हो जाता है तथा कथंचित् अनित्यात्मकता भी सिद्ध हो जाती है। __ उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य का परस्पर विरुद्ध स्वभाव है। क्योंकि जो अनित्य है उसी को नित्य अथवा जो नित्य है उसीको अनित्य कैसे कहा जा सकता है। ऐसी शंका यहाँ हो सकती है / परन्तु यह वास्तविक नहीं है क्योंकि ये धर्म परस्पर विरुद्ध नहीं है। लोक व्यवहार में भी यह बात देखने को मिलती है अथवा द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नय की युक्ति से भी यह बात सिद्ध है कि ये धर्म-सत्त्व और असत्त्व अथवा नित्यत्व-अनित्यत्व अपेक्षा से सिद्ध है। सत् तीन प्रकार का बताया है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। नित्य के दो भेद है - अनादि अनन्त नित्यता और अनादि सान्त नित्यता। ये तीनों प्रकार के सत् और दोनों प्रकार के नित्य अर्पित और अनर्पित के द्वारा सिद्ध होते है। क्योंकि विवक्षा और अविवक्षा प्रयोजन के आधीन है। कभी प्रयोजन के वश उक्त धर्मों में से किसी भी एक धर्म की विवक्षा होती है और कभी प्रयोजन न रहने के कारण उसी की अविवक्षा हो जाती है। अतएव एक काल में वस्तु सदसदात्मक, नित्यानित्यात्मक और भेदाभेदात्मक आदि सत्प्रतिपक्ष धर्मों से युक्त सिद्ध होती है। जिस समय सद् सदात्मक है उसी समय में वह नित्यानित्यात्मक आदि विशेषणों से भी विशिष्ट है जो सत् है वह असत् आदि विकल्पों से शून्य नहीं है और जो असत् है वह सदादि विकल्पों से रहित नहीं है। क्योंकि वस्तु का स्वभाव ही सप्रतिपक्ष धर्म से विशिष्ट है। प्रतिपक्ष धर्म से सर्वथा शून्य माना जाय तो मूल विवक्षित धर्म की भी सिद्धि नहीं हो सकती है। अतएव वस्तु को सप्रतिपक्ष धर्मात्मक माना है और इसीलिए उसके दो प्रकार भी किये है। अर्पितव्यवहारिक और अनर्पित व्यवहारिक।४२ ऊपर दो धर्मों की अपेक्षा है। सत् और नित्य / इनके दो प्रतिपक्ष धर्म है - असत् और अनित्य / इनमें से सत् चार प्रकार का है - द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, उत्पन्नास्तिक और पर्यायास्तिक। इनमें प्रथम के दो भेद द्रव्यास्तिक नय के है और दूसरे दो भेद पर्यायास्तिक नय के है।४३ द्रव्यास्तिक के द्वारा प्रायः लोक व्यवहार सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि उसका विषय अभिन्न द्रव्य है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII IIIIIIA द्वितीय अध्याय | 91 )