________________ रखा है। तत्त्व वह है जो तारक बनकर जीवन को तरल एवं सरल बना दे और प्रतिपल पलायित होने के लिए कोई प्रणिधान नहीं बनाये। क्योंकि प्राणों में तत्त्व का संवेदन चलता रहता है। रक्त नाडिकाओं में वह तत्त्वरस संघोलित होता रहता है। अनेकान्तवादियों का तात्त्विक विलोडन सर्वसारभूत सत् से सत्यापित रहा है। इस सत्त्व को सच्चाई व अच्छाई से आलेखन करने का श्रेय मल्लवादियों ने अर्जित किया है। सम्मति-तर्ककार सिद्धसेन ने चरितार्थ बनाया। इसी प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि, महोपाध्याय यशोविजयजी जैसे महामान्य मनीषियों ने इस सत्प्रवाद का तात्त्विक तथ्य अनुभव कर अपने प्रतिपादनीय प्रकरणों में परिवर्णित किया। वह इस प्रकार है - सम्यक् प्रकार से हम जब पदार्थ के विषय में चिन्तन करते है तब हमारे सामने वह त्रिधर्मात्मक रूप में प्रगट होता है और जिसके स्वरूप को सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्माने अपनी देशना में प्ररूपित किया। जिसका पाठ स्थानांग वृत्ति में इस प्रकार मिलता है। "उप्पन्ने वा, विगए वा, धुवे वा'' अर्थात् प्रत्येक नवीन पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होता है, पूर्वपर्याय की अपेक्षा नष्ट होता है और द्रव्य की अपेक्षा ध्रुव रहता है। यह मातृका पद कहलाता है। यह सभी नयों का बीजभूत मातृका पद एक है। अतः उपाध्याय यशोविजयजी म. ने उत्पादादि सिद्धिनामधेयं (द्वात्रिंशिका) प्रकरण की टीका में कहा कि श्रीमद् भगवान पूर्वधर महर्षि उमास्वाति वाचकप्रमुख के द्वारा रचित ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' सूत्र से सत् का जो लक्षण निरूपित किया है वह इतिहास के दृष्टिकोण से देखते है तो इस सूत्र में निर्दिष्ट लक्षण प्रारंभिक नहीं है। अर्थात् लक्षण की शुरुआत वाचक उमास्वाति म. ने नहीं की। पहले श्रीमद् भगवद् तीर्थंकरोंने लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् श्रीमद् गणधरों के प्रति ‘उप्पज्जेइ वा', 'विगमेइ वा', 'धुवेइ वा' यह त्रिपदी युक्त ही सत्त्व का लक्षण प्रारंभिक है और जिसके कारण उपदेशक ऐसे तीर्थंकर की आप्तस्वभावता भी सिद्ध होती है। आचार्य चंद्रसेन सूरि ने 'उत्पादादिसिद्धिनामधेयं' सूत्र की मूल कारिका में इस लक्षण को लक्षित किया हैयस्योत्पादव्ययध्रौव्य-युक्तवस्तूपदेशतः। सिद्धिमाप्तस्वभावत्वं, तस्मै सर्वविदे नमः॥ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त वस्तु के उपदेश से जिसका आप्त स्वभावपन सिद्ध हो गया है उस सर्वज्ञ को मेरा नमस्कार हो / कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि रचित 'वीतराग स्तोत्र' में सत् का लक्षण इस प्रकार है तेनोत्पादव्ययस्थेमसम्भिन्नं गोरसादिवत्। त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत्॥ हे भगवान् ! गोरसादि के समान उत्पाद-व्यय-स्थैर्य से संमिश्र ऐसा आपके द्वारा प्रतिपादित सत् को बुद्धिमान व्यक्ति वास्तविकरूप (परमार्थ) से स्वीकार करे। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII द्वितीय अध्याय 82