Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ “उत्पाद व्यय पलटती, ध्रुव शक्ति त्रिपदी संती लाल।" वा. उमास्वाति रचित प्रशमरति सूत्र में भी सत् का लक्षण मिलता है। योगवेत्ता आचार्य हरिभद्रसूरि योगशतक में 'सत्' के लक्षण को इस प्रकार निरूपित करते है। चिंतेज्जा मोहम्मी ओहेणं ताव वत्थुणो तत्तं / उपाय-वय धुवजुयं अणुहव जुत्तीए सम्मं ति॥६ आत्मा अनादि काल से मोह राजा के साम्राज्य में मोहित बना हुआ है। जिससे वह सम्यग्-ज्ञान के प्रकाश-पुञ्ज को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः अज्ञानरूपी अंधकार का समूल नष्ट करने के लिए जीव-अजीव आदि सभी पदार्थों का त्रिधर्मात्मक (त्रिपदी) से चिन्तन करना चाहिए। परमार्थ से यह त्रिपदी ही 'सत्' का लक्षण है। जिसे वाचक उमास्वाति महाराजने अपने तत्त्वार्थ सूत्र में इस प्रकार उल्लिखित किया है - ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' उत्पाद-व्यय और ध्रुव इन तीन धर्मों का त्रिवेणी संगम जहाँ साक्षात् मिलता हो वही सत् जानना चाहिए। महापुरुषों ने उसे ही सत् का लक्षण कहा है। जैसे कि एक ही समय आत्मा में उत्पाद, व्यय और ध्रुव तीनों धर्म घटित हो सकते है। यह अनुभवजन्य है - जिस आत्मा का मनुष्यरूप से व्यय होता है उसी का देवत्व आदि पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद होता है। आत्मस्वरूप नित्यता सदैव संस्थित रहती है। इसी बात को शास्त्रवार्ता समुच्चय में दृष्टांत देकर समझाते है - घट मौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद-स्थितिष्वयम्। शोक प्रमोद माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् / / पयोव्रतो न दध्यति न पयो त्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकम्॥ सुवर्ण के कलश से एक बाल क्रीडा करता हुआ प्रसन्नता के झूलों में झूल रहा था। दूसरा बालक उसे * 'इस प्रकार क्रीडा करते देखकर स्वयं के लिए सोने का मुकुट बनाने हेतु अपने पिता के सामने मनोकामना व्यक्त की, लेकिन परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि मुकुट बनाने के लिए घर में दूसरा सुवर्ण नहीं था। अतः सुनार के पास जाकर सुवर्ण के घट को तोडकर मुकुट बनाने का कहा, सुनार सुवर्ण के घट को छिन्न-भिन्न करके सुंदर मुकुट तैयार करता है। उसमें एक ही समय में घट का विनाश मुकुट का उत्पाद तथा सुवर्ण का ध्रौव्य है और इसी कारण प्रथम बालक रुदन करता है, दूसरा बालक आनंद से झूम उठता है और उनके पिताश्री माध्यस्थ, तटस्थभाव में रहते है। ऐसा ही दृष्टांत ग्रन्थांतर में मिलते है - षड्दर्शन समुच्चय टीका, न्यायविनिश्चय, आप्त मीमांसा,११ मीमांसा श्लोकवार्तिक तथा ध्यानशतकवृत्ति३ / व्यवहार में भी इसका अनुभव होता है - जैसे कि कांच का गुलदस्ता हाथ में से गिर गया, तो गुलदस्ता | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII IIMINA द्वितीय अध्याय | 83 ]