Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
View full book text
________________ षट्स्थानों में पडे हुए हानि-वृद्धि स्वरूप से अर्थ पर्याय है उनकी अपेक्षा से उत्पाद व्यय है अथवा जिस-जिस उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप से ज्ञेय पदार्थ परिणमते है उन उनकी परिच्छित्ति के आकार से इच्छारहित वृत्ति से सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है। इस कारण से उत्पाद व्यय है। अथवा सिद्धों में व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से संसार पर्याय का नाश, सिद्ध पर्याय का उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपन से ध्रौव्य है। न्याय विनिश्चय में दिगम्बर आचार्य अकलंक ने गुणों को भी तीन धर्मों से युक्त सिद्ध किया है। गुणवद्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यादयो गुणाः / 20 गुणों में भी उत्पाद, व्यय और नाश घटित होता है। न्यायविनिश्चय के प्रणेता दिगम्बराचार्य उद्भट्ट तार्किक भट्ट अकलंक अपने ग्रन्थ में सत् की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं - सदोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सदसतोगतेः।२१ तथा प्रत्यक्ष प्रमाण के निगमन में सत् की व्याख्या इस प्रकार है - अध्यक्षलिङ्गस्सिद्धमनेकात्मकमस्तु सत्।२२ प्रत्यक्ष लिङ्ग से सिद्ध ऐसी अनेकात्मक अर्थात् अनेक धर्मों से युक्त पदार्थ सत् है, यह उनकी अपनी विशिष्ट व्याख्या है। आचार्य हरिभद्रसूरि षड्दर्शन कारिका में सत् को उजागर निराले निरूपम रूप से करते हैं - येनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं यत्तत्सदिष्यते। अनन्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मान गोचरः / / 23 सत् का सत्ता स्वरुप जिससे अभीष्ट बनता है उससे ही प्रमाणरुप परिणमित होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि एक बहुदर्शी, बहुश्रुत बनकर ‘षड्दर्शन समुच्चय' में आत्मप्रज्ञता को प्रस्तुत करते है। जिस कारण से उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य धर्मवाला पदार्थ सत् होता है उसी से ही अनन्तधर्मात्मक पदार्थ प्रमाणभूत हो जाता है। मूल श्लोक में 'येन' इस शब्द से एक ऐसी विचारणा व्यक्त करते है जिससे 'तेन' को एक तलस्पर्शी बोध का जागरण जागृत कर देते है। ('येन' और 'तेन' से एक ऐसा प्रज्ञा का प्रकर्ष परिष्कृत कर अपनी मनोवैज्ञानिकता एवं सिद्धान्त सूक्ष्मदर्शिता स्पष्ट करते हुए सद्वाद को सत्यवान् बनाया।) इस प्रकार सत् को अवधारित करने पर आचार्य सिद्धसेन का दृष्टिकोण महामूल्यवान् सिद्ध हुआ है। उन्होंने अपने ‘सम्मति तर्क' जैसे ग्रन्थ में सत् की चर्चाएँ उल्लिखित कर सम्पूर्ण तत्कालीन दार्शनिकों के मन्तव्यों को उद्बोधन दिया है और समयोचित शास्त्रसंगत मान्यताओं को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए सत् के स्वरुप को स्पष्ट किया है। सम्मति तर्क के टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं - | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI VA द्वितीय अध्याय | 860