Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ है। टूटने पर घड़े का व्यय लेकिन इन दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का रूप एक ही प्रतीत होता है। तत्त्वार्थ सूत्र के स्वोपज्ञ भाष्यकार वाचक उमास्वाति म. ने भी अपने भाष्य में सत् का लक्षण निरूपित करते है - उत्पादव्ययौ, ध्रौव्यं चैतन्त्रितययुक्तं सतो लक्षणम्। अथवा युक्तं समाहितं त्रिस्वभावं सत्। यदुत्पद्यते यद्व्ययेति यच्च ध्रुवं तत्सत् अतोऽन्यदसदिति।१६ उत्पाद, व्यय, ध्रुव - इन तीनों धर्मों से संयोजित रहना ही सत् का लक्षण है। अथवा युक्त शब्द का अर्थ समाहित, समाविष्ट करना अर्थात् सत् का लक्षण त्रिस्वभावता ही है, जो उत्पन्न होता है, नाश होता है और स्वद्रव्य में हमेशा ध्रुव रहता है वह सत् है। इससे विपरीत असत्। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने तत्त्वार्थ की डुपडिका टीका में सत् के लक्षण का अद्भुत विवेचन किया है। साथ में उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति' यह प्रवचन का गर्भसूत्र है अर्थात् जैन शासन की नींव इस सूत्र में समाविष्ट है। जिस पर जैनशासन रूपी राजमहल अखंड, अकम्पित, अव्याबाध रूप से सुस्थिर बना है तथा इनके आधार पर इहलौकिक एवं पारलौकिक व्यवस्थाओं का निबन्धन सुव्यवस्थित हो सकता है। जगत की व्यवस्था भी इन धर्मों से संलग्न होकर प्रवर्त्तमान होती है। अर्थात् ‘शास्त्रवार्ता समुच्चय' में तो आचार्य हरिभद्र का दृष्टिकोण और विशाल बन गया और कहा कि शास्त्रकृतश्रमों के द्वारा जीव और अजीव समुदाय रूप यह जगत भी त्रयात्मक धर्म स्वरूप है। अन्येत्वाहुनाद्येव जीवाजीवात्मकं जगत्। सदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं शास्त्रकृतश्रमाः॥१८ - जिसका शास्त्र के अनुशासन में सजग रहने का श्रम एवं क्रम सदा रहा है ऐसे स्याद्वादवादियों का जगत विषयक निर्णय निराला है और वे न तो ईश्वरकृत संसार को स्वीकृत करते है और न पुरुषप्रकृत्यात्मक जगत को मान्यता देते है। केवल शास्त्र-विषयक अनुशीलन को महत्त्व देते हुए महाप्रज्ञ स्याद्वाद सिद्धान्त के सुधियों को ''शास्त्रकृतश्रमाः' यह विशेषण देकर शास्त्रीय अनुपालन करनेवाले ऐसे उन मनीषियों की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप जगत का स्वरूप यही सहभावी एवं पारमार्थिक है। बृहद् द्रव्य संग्रह में सिद्ध भगवंतों को भी त्रयात्मक धर्म से युक्त निर्दिष्ट किये है / जैसे कि - णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवएहिं संजुता // 19 जो जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित है, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक है तथा अन्तिम शरीर से कुछ कम है वे सिद्ध है और ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाव में स्थित है तथा उत्पाद और व्यय इन दोनों से युक्त है। सिद्धों में भी ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय इस प्रकार घटित होता है। आगम में कहे हुए जो अगुरुलघु नादि | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII VINA द्वितीय अध्याय | 85