________________ योगमार्ग का उपदेश देते है। कामसुख के अर्थी भवाभिनंदी जीव ओघदृष्टि' कहे जाते है तथा मोह की मंदता के कारण मुक्ति द्वेष दूर होकर मुक्तिमार्ग की तरफ अद्वेष जिसको जागृत हो जाता है, आत्मा और देह के भेद का बोध हो जाता है, वही मुमुक्षु जीव योगदृष्टि' कहा जाता है। इस योग दृष्टि के महर्षियों ने आठ विभाग किये / उन आठ दृष्टियों का वर्णन इस योग दृष्टि समुच्चय' ग्रन्थ में सूक्ष्म रीति से किया गया है। समर्थ योगमार्ग के ज्ञाता आचार्य हरिभद्रसूरिने योगदृष्टि समुच्चय को योगतन्त्र के अत्यधिक सन्निकट रखते हुए उसकी पुरातन परिभाषा की प्रत्यक्ष श्रुतिफल बनाई है, इसमें इच्छायोग और सनातन संस्कार योगों का समाश्रयस्थल बनाया है। साथ में शास्त्रयोग का समाश्रय लेकर 'योगदृष्टि समुच्चय' की भूमिका रची है। योग दृष्टिकार कहते है कि - दुर्लभ मनुष्य भव में योगदृष्टि ही आत्मकल्याण का दृष्टिकोण है। इसमें मोक्ष मार्ग के प्राप्ति का सामर्थ्य भरा हुआ है। इच्छादि योगों से ही आत्मा में योग दृष्टि का उदय होता है और जब योगदृष्टि बल बढला है तब मित्रा, तारा, बला, स्थिरादि दृष्टियों की पराकाष्ठा का अनुभव होता है। और यह अनुभव ही मन को विकल्प रहित बनाता है। आत्मा में परोपकारीत्व का भाग जगाता है और सम्पूर्ण अनुष्ठानों को अवन्ध्य बनाने का सुअवसर संप्राप्त करवाता है। योगदृष्टि अनवरत अद्वेषा रही है, जिज्ञासा सहित बनी है और बोधगम्य रही है। श्रद्धा से युक्त जो बोध होता है वही योगदृष्टि है। यह बोध अनर्गल प्रवृत्ति का प्रहरी है तथा सर्वश्रेष्ठ प्रवृत्ति का स्थान है। सच्छ्रद्धासङ्गतो बोधों, दृष्टिरित्यभिधीयते। असत्प्रवृत्ति व्याघातात्, सत्प्रवृत्ति पदावहः // 112 देखना, जानना यही दृष्टि योग है। बोध श्रद्धा की सङ्गति से योगदृष्टि का उद्भावन होता है। योगदृष्टि असत्प्रवृत्ति विरोधी रही है, और सत्प्रवृत्ति की सदाचारी रही है। योगदृष्टि अनादि कालीन रूढ, गुप्त घनीभूत रागद्वेष की ग्रन्थियों को तोडने में समर्थ रही है। योगदृष्टि समुच्चयकार गुरुगम से अभ्यास को समुन्नत बनाने का संदेश देते हुए अनेक कुतर्करूपी विषमग्रहों से निवृत्त रहने का उपाय भी बतलाते है, उपयोग भी समझाते है। आ. हरिभद्र ने अपने जीवन में कुतर्कों को स्थान नहीं दिया। क्योंकि वे तो समत्व के साधक थे। अतः उन्होंने अपने ग्रन्थ में कहा कि कुतर्कों को जीवन में कभी मत आने दो, क्योंकि वह आत्मा के बोध को रुग्ण बना देता है। चिन्तन, मनन की शक्ति में मानसिक, बौद्धिक शिथिलता लानेवाले कुतर्क है। जैसे शरीर दुर्बल बनाने में रोग आक्रामक बन जाते है, वैसे ही बोध को मंद बनाने में स्वच्छन्द रखने में कुतर्क प्रबल बन जाते है। कुतर्क के रोगों से ग्रसित उनको श्रुतज्ञानरूपी परमान्न रुचिकर नहीं लगता। यदि कोई आत्मानुग्रह से श्रुतज्ञान को देने का आग्रह भी कर दे तो उसके लिए वह अजीर्ण बन जाता है। यह बोध रोग में उषर भूमि जैसा दुर्गुण है जो शास्त्रज्ञान के विचारों के बीजों को उद्भावित नहीं होने देता। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII प्रथम अध्याय