Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ रागद्वेष तथा तिरस्कार भावों को दूर करके “परसाम्यता” को प्राप्त करने का उपदेश दिया है तथा स्वयं एक निष्पन्न नेता होकर दर्शन-शास्त्र में मूर्तिमान होते है। दर्शनशास्त्र की चर्चा में बहुत कुछ ही अक्षरों में मर्मभेदक युक्तियों से एकान्तवाद को परास्त करके अनेकान्तवाद की ध्वजा फहरा दी है, यह आचार्यश्री के हृदय में स्थित स्याद्वाद की अनहद भक्ति बहुमान भाव की पराकाष्ठा ही है। इसमें 100 गाथाएँ है। इस ग्रन्थ पर हरिभद्रसूरि की ‘स्वोपज्ञटीका' 750 श्लोक प्रमाण है जिसका प्रस्तुतिकरण इस प्रकार है - कृतिधर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोराचार्यहरिभद्रस्य ग्रन्थाग्रमनुष्टुप्छन्दसोद्देशतः श्लोकशतानिसप्त सार्धानि। इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद भी अनेक मुनिभगवंतो ने तथा पंडितवर्यों ने किया है। इस ग्रन्थ में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त और भी अनेक विषयों का संकलन सूक्ष्म बुद्धि से किया गया है जैसे कि तीर्थश्रवण, शुक्लाहार, लब्धियों, मरण का समय जानने के उपाय, मुक्ति की प्राप्ति और अन्त में संसार विरह आदि। (12) योगदृष्टि समुच्चय - इस संसार में अनंतानंत जीव है प्रत्येक जीव सुख के पीछे पागल बना हुआ है उसका लक्ष्य अनवरत सुख प्राप्ति का ही होता है। अतः उनके योग्य उपाय का अन्वेषण करता रहता है। लेकिन वे सुख दो प्रकार के है, एक सुख क्षणिक, नाशवंत है, दूसरा सुख अक्षणिक शाश्वत है। क्षणिक सुख कामसुख है जिसके उपाय, अर्थ, प्राप्ति, अङ्गना, प्रीति आदि तथा दूसरा सुख शाश्वत जो मोक्षसुख है जिसके उपाय मुख्य रत्नत्रयी की आराधना स्वरूप धर्म। सुख दो प्रकार के होने के कारण सुख के अर्थी प्राणी भी दो प्रकार के होते है। कामसुख के अर्थी जीवों को भवाभिनंदी अर्थात् भोगी जीव कहा जाता है, ये पाँच इन्द्रियों के विषय सुखों में सुख की पराकाष्ठा देखते हैं और उनके उपाय अर्थ-स्त्री आदि में ही प्रवृत्त होते हैं तथा मुक्ति-सुख के अर्थी जीवों को मुमुक्षु साधक अर्थात् योगीजीव कहे जाते है। ये मोक्षसुख के उपायभूत धर्म-साधना में ही प्रवृत्तिशील रहते है। सभी संसारी जीवों के उपर मोहराजा का प्राबल्य अनादि काल से है। कामसुख की आसक्ति और उसके उपाय नैसर्गिक रूप से सविशेष होते है। सहसा कामसुख की परिणति आ जाती है और उत्तरोत्तर बढने लगती है। इसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती है। लेकिन मोक्ष सुख पर प्रीति रुचि के सद्भाव उनके नहीं होते है। अतः कामसुख का राग दूर करने एवं मोक्षप्राप्ति को प्रीति संपादन के लिए उपदेश देना आवश्यक हो जाता है। कामसुख क्षणिक है, नाशवंत है, पराधीन है, मोह उत्पादक है, विकारवर्धक है, अनेक उपायों से भरपूर है। नरक निगोद के भयंकर दुःखों को देनेवाला है। जबकि मोक्ष सुख स्थिर, नित्य, स्वाधीन, निर्विकारी, निरुपाधिक है, शुद्ध स्वभाव की रमणतावाला है। अतः परमयोगी महर्षि सभी जीवों के परोपकार के लिए ऐसे [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII प्रथम अध्याय