Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ होगा। इसमें पूर्वपक्ष का निरूपण आचार्यश्री ने स्वयं के मतिवैभव से किया है। तथा तत्पश्चात् उन मतों का युक्तिपूर्ण खंडन किया है। __इसमें सत्-असत्, नित्यानित्य, सामान्य-विशेष, अभिलाप्य-अनभिलाप्य इन विषयों पर चर्चा की गई है। इसमें पूर्वपक्ष इन सभी में एकान्तदृष्टि से भेद मानता है - 'कथमेकं सदसद्पम् भवति'१२३ एक ही वस्तु सत् असत् कैसे हो सकती है ? उसका समाधान आचार्य श्री ने युक्तिपूर्ण दिया है और जिसका विस्तार “अनेकान्तजयपताका' में मिलता है / यह कृति आ. हरिभद्रसूरि रचित है। | निष्कर्ष अस्तु निष्कर्ष रूप में यह कहना उचित है कि आचार्य हरिभद्र एक क्रान्तिकारी आचार्य समन्वय के पुरोधा थे, जैन दर्शन एवं सिद्धान्तों को नव आयाम देने वाले थे। उनका व्यक्तित्व जितना महान् था उतना ही महान् उनका कृतित्व था। उनकी दार्शनिक कृतियों पर परवर्ती विद्वानों, चिन्तकों द्वारा लिखे गये व्याख्या ग्रन्थ या अनुवाद उन दार्शनिक कृतियों के वैशिष्ट्य को उजागर करते हैं एवं स्वाभिमान के साथ वे कहते थे। न मे पक्षपातो वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः // 124 आदि पंक्तियाँ उनकी अनेकनीयता समन्वयशीलता एवं समरसता को प्रकट करती है। नि:संदेह वे महान् आचार्य सत्यसंधित्सु, महान् विचारक, चिन्तन एवं लेखक थे। ये जैन दर्शन के असामान्य विद्वान् होते हुए भी अन्यदर्शनों की गतिशीलता एवं परिपूर्णता उनमें अद्भुत थी स्वयं के सिद्धान्तों को स्पष्ट करने में सदैव महामना रहे और अन्यों के सिद्धान्तों को समझने में सदैव विशेष मेधावी रहे। इस प्रकार जैन दर्शन को दिये गये उनके अवदान उनकी अमरगाथा के साक्षी युगों-युगों तक रहेंगे। // इति प्रथम अध्याय / / * * | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII / प्रथम अध्याय | 76