Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ ब्रह्मा विष्णुर्भवतु वरदः, शंकरो वा हरो वा। यस्याऽचिंत्यं चरितमसमं, भावतस्तं प्रपद्ये // 197 जिसका चरित्र अचिन्त्य और अतुल हो ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, शंकर अथवा हरि कोई भी देव क्यों न हो उनको मैं भावपूर्वक स्वीकार करता हूं। 'लोकतत्त्व निर्णय' में सुन्दर विषयों का निरूपण हमें देखने को मिलता है। इसमें सर्वप्रथम भव्य आत्मा ही उपदेश के योग्य होती है। क्योंकि सिंहणी का दूध स्वर्णपात्र में ही रह सकता है, अयोग्य में उपदेश अनर्थकारी भी बन सकता है, फिर सुदेव की पहचान तथा सुदेव ही हमारे आराध्य वंदनीय है, तत्पश्चात् लोक आत्मा और कर्म को लेकर पूर्वपक्ष उठाया है और उसका खण्डन भी अभेद्य तर्कों द्वारा किया गया है / जिसका एक सुन्दर उदाहरण हमें कर्म भाग्य के विषय में मिलता है। यद्यपि आचार्य हरिभद्र एक पुरुषार्थ प्रेमी महान् दार्शनिक थे, पुरुषार्थ के बल पर ही सम्पूर्ण जीवन के ढाचे को ढाला था। फिर भी भाग्य विधाता का विरोध नहीं किया, यह हमें इस श्लोक में देखने को मिलता है। स्वच्छंद तो नहि धनं न गुणो न विद्या, नाप्येव धर्मचरणं न सुखं न दुःखम् / आरूह्य सारथिवशेन कृतान्तयानं, दैवं यतो नयति तेन पथा व्रजामि // 18.. धन, गुण, विद्या, सदाचार, सुख या दुःख ये स्वेच्छा से जीव को कुछ नहीं कर सकते / उसी कारण सारथी के परवश से पालखी में बैठकर भाग्य, जिस मार्ग में ले जायेगा वहाँ जाऊँगा। अर्थात् धन, गुण, विद्या, सुख-दुःख होने पर भी यह जीव पूर्वकर्म के फल से नहीं बचता है उसे वह फल तो भोगना ही पड़ता है। इसी प्रकार जो ईश्वरकृत् जगत् को मानते उनको सुंदर संयुक्ति पूर्वक वचनों में कहते - तस्मादनादिनिधनं व्यसनोरूभीम, जन्मारदोषद्रढनेम्यतिरागतुम्बम्। घोरं स्वकर्मपवनेरितलोकचक्रं, भ्राम्यत्यनारतमिदं किमिहेश्वरेण // 1199 उस कारण से अनादि अनन्त स्थितिवाला, कष्ट से अत्यंत भयंकर और अनेक जन्मरूपी आराओंवाला, द्वेषरूपी दृढनेमिवाला, अतिरागरूपी नाभिवाला, घोर और स्वयं के लिये हुए कर्म रूपी पवन से प्रेरित यह लोकरूपीचक्र निरन्तर परिभ्रमण करता है, तो यहाँ ईश्वर से क्या ? अर्थात् पूर्वोक्त स्वरूपवाला लोक कर्मप्रवाह से ही प्रवाहित है, ईश्वर से प्रेरित नहीं है। यद्यपि दार्शनिक होने के नाते यह खंडन-मण्डन की प्रवृत्ति स्वाभाविक हो जाती थी। लेकिन इनका मूलतः स्वभाव तो समदर्शी रूप में संवर्द्धित होता है। क्योंकि अपने दर्शन में, ग्रन्थों में अन्यदर्शनकारों के मत एवं मतानुयायियों को बहुमान देना सहज और सुलभ नहीं है। वे तो गंभीराशयों वाले के हृदय से ही समदर्शी के झरणे प्रवाहित हो सकते है और इसमें मूर्धन्य स्थान यदि किसी का हो तो वह है मेरी दृष्टि आचार्य हरिभद्रसूरि का। वैसे दार्शनिक जगत में लोक, आत्मा और कर्म के अनुसंधान में अनेक दार्शनिकों ने अपनी लेखनी चलाई है और अपने मति-मन्थन को शास्त्रों में प्रस्तुत किया है। लेकिन लोकतत्त्व निर्णय में जो संक्षेप एवं | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / VIA प्रथम अध्याय | 74 )