________________ के सबसे तीक्ष्ण मन्मथ (कामदेव) के अस्त्रों को आत्माभाव में प्रविष्ट नहीं होने दिया। काम के तीक्ष्ण बाणों से आचार्य हरिभद्र कहते है कि तपस्वियों को फिसलते हतप्रहत होते पाये गये है, तपस्वी योग विकल हो सकता है परन्तु योगी उनके तीक्ष्ण बाणों से कभी योग विकल नहीं बनता, उल्टे वे शस्त्र कुण्ठित हो जाते है। कुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि, मन्मथास्त्राणि सर्वथा। योगवर्मावृत्ते चित्ते, तपच्छिद्रकराण्यपि // 113 योगसिद्ध महात्माओं के द्वारा पापक्षय करने के लिए दो अक्षरों से युक्त 'योग' शब्द को श्रुतरूप दिया है, जैसे शास्त्रों को सुनने से मनुष्य निष्पाप बनता है वैसे ही योग शब्द का उच्चतम भाव से केवल गान करले तो वह भी योग-विज्ञान का विशेषाधिकारी हो सकता है। अक्षरद्वयमप्येत च्छ्रयमाणं विधानतः। गीतं पापक्षयायोच्चै-र्योगसिद्ध महात्मभिः // 114 अविद्या से मलिन बने हुए मानस को केवल योगाग्नि ही विशुद्ध बना सकती है। जैसे कि मल से युक्त सुवर्ण को अग्नि। योग-विद्या पारलौकिक संशयों को पराजित करती रही है और निःसंशय रूप से नैष्ठित बनाती जाती है। यह योग विद्या श्रद्धा स्वरूप बनकर देवों को गुरुओं को द्विजों को प्रायः स्वप्न में भी हृष्ट-पुष्ट-श्रेष्ठ प्रेरणादायक देखती है। सज्जनों की सम्पूर्ण प्रवृत्ति योगमय रहती है और पूर्वसेवाक्रम उनमें सुनिश्चित पाया जाता है, क्योंकि योग कल्पवृक्ष है। श्रेष्ठ चिन्तामणिरत्न है, युगप्रधान धर्म है, अणिमादि सिद्धिओं का स्वयंवर स्वयंग्रह है। योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणिःपरः।। योगः प्रधानः धर्माणां, योगः सिद्धेः स्वयंग्रहः // 115 जन्म के बीजों को जलाने में अग्नितुल्य, जरा को जर्जर बनाने में महाजरा रूप में, दुःख के लिए राजक्ष्मा और मौत के लिए यह महामौत जैसी योगविद्या है। योगी योगमार्ग पर समाधिस्थ होता हुआ धर्ममेघ नाम से अमृतात्मा, भवशक्र, सत्यानंद अर्थ से परिचित हो जाता है। इस ग्रन्थ में अनेक विषयों पर आचार्यश्री का विचारात्मक दृष्टिकोण है। इस ग्रन्थ के सिंहावलोकन करने पर ज्ञात होता है। इसमें योगविषयक मार्ग, योग का अर्थ, योगाधिकारी, योग का महात्म्य, योग का फल, द्रव्ययोगभावयोग, योग से मोक्ष की प्राप्ति। जीव और कर्म का अनादि संबंध, परलोक सिद्धि, कर्म मूर्त या अमूर्त है, ग्रन्थीभेद के पश्चात् आत्मा का स्वरूप द्रव्यकर्म और भावकर्म का परस्पर संबंध आत्मा की नित्यानित्य स्थिति, कर्ममल का स्वरूप। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व III | प्रथम अध्याय | 72 ]