Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ न्यायदर्शन के विद्वानों ने सर्वज्ञता को एक सीमित संकीर्णित सीमाओं में सुनियन्त्रित करने का सुप्रयास किया हैं। जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने लोकोत्तरीय पुरुष में सर्वज्ञता को देखा है। जो सर्वज्ञ किसी विवक्षा से न वक्ता होता है न किसी भाव से इच्छावान् बनता है, और न राग दशा में आकर विवेचक होता है, ऐसे रागादि से सर्वथा शून्य सर्वज्ञ को स्वीकार किया गया है। जो जैन दर्शन का सबसे मुख्यतम प्रतिपाद्य विषय रहा है। सर्वज्ञ-सिद्धि में इस प्रकरण को "भुवनैकसारम्” इस संज्ञा से समाख्यात कर मात्सर्य दुःख विरह को गुणानुराग से गुणशाली बनाने का सदाग्रह किया है। . सर्वज्ञ के वाक्य को सुखावह गम्भीर एवं मान्य किया है। सर्वज्ञ ही जिनेश्वर है अन्य कोई नहीं। (10) योगविंशिका - 1444 ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरिद्वारा रचित विंशति- विंशिका प्रकरण जिसमें विविध विषयों पर बीस श्लोकों में अद्भुत् निरूपण किया गया है उस ग्रन्थ का ही योग विषयक एक प्रकरण “गागर में सागर' की उक्ति को सार्थक करता है। “योगविशिंका" प्रकरण जिसका बीस श्लोकों पर महोपाध्यय यशोविजयजी म.सा. ने टीका लिखकर उसके रहस्य को प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने योग की व्याख्या तथा योग के भेद -प्रभेदों को विविध प्रकार से बताये है। मोक्षसाधक प्रत्येक अनुष्ठान योग कहलाता है तथा आचार पालन में शुद्धि और स्थिरता उत्पन्न करनेवाले स्थानादि पाँच प्रकार के योग कहे जाते है। इस पाँच योगो को दो भागों में विभक्त करके प्रथम के दो क्रियायोग तथा अन्तिम तीन योग को ज्ञानयोग . कहा है। स्थानादि योगों के सेवन इच्छा-प्रवृत्ति -स्थिरता और सिद्धि की अपेक्षा से चार प्रकार के होते है अत: योग के कुल 20 भेद भी प्रीति-भक्ति-वचन और असंग अनुष्ठान की अपेक्षा से उत्तरोत्तर विशुद्ध बनते है इस प्रकार कुल 80 भेद होते हैं। ___ स्थानादि पाँच योगों के लक्षण के साथ ही टीकाकारश्री ने प्रणिधि-प्रवृत्ति-विघ्नजय-सिद्धि और * विनियोग पाँच आशयों का अलग-अलग अपेक्षा से निरूपण किया है तथा चार अनुष्ठान का भी सुन्दर विवेचन किया है। चैत्यवंदनादि प्रत्येक क्रिया में स्थानादि योगों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए जिससे धर्मक्रिया अमृ अनुष्ठान बनकर शीघ्र मोक्षफल देने में समर्थ बनें। ये स्थानादि चारों योगों में निरन्तर अभ्यास करने से आलंबन योग में प्रवेश होता है। आलंबनयोग यह ध्यानयोग और अनालंबयोग समता समाधिरूप है उसमें विशेष स्थिरता होने पर वृत्तिसंक्षय योग भी प्राप्त होता है / जिससे आत्मा परम निर्वाण पद को प्राप्त करती है। अन्यदर्शनकारों ने इसी योग को अन्य नामों से बताया है जिसको टीकाकार श्री महोपाध्याय यशोविजयजी ने अपनी टीका में उसका उल्लेख किया है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII प्रथम अध्याय | 65 ]