Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ अनेक प्रकार के अनर्थकारी अनुष्ठानों को जन्म दिया। वेद के नाम पर, ऋषियों के कथन पर भद्र वर्ग उन्मार्ग पर नेत्र बन्ध करके दौड़ने लगे / अत्यन्त कठोर शब्दों में इस दर्शन की आलोचना करते आचार्य हेमचन्द्राचार्य ने कहा है - वरं वराकश्चार्वाको, योऽसौ प्रकट नास्तिकः। वेदोक्ति तापसच्छद्म, छन्नं रक्षो न जैमिनिः // 109 इसलिए पापाचरण का पक्षपाती मीमांसादर्शन यदि सर्वज्ञ का अपलाप करे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं 2. सर्वज्ञ का विशेष अर्थ करनेवाले - सांख्य दर्शन में सर्वज्ञ के विषय में स्पष्ट विचार करने में नहीं आया, लेकिन उनके दर्शन को देखते हुए इस विषय में प्राय: अलिप्त जैसे ही रहे है / अर्थात् सर्वज्ञ को नहीं मानते है, आत्मा चैतन्य स्वरूप है ऐसा यह दर्शन मानता है फिर भी उस चैतन्य का स्वयं कार्यक्षम अंशमात्र भी नहीं है, किन्तु बुद्धि के प्रतिबिंब मात्र उसमें प्रतिबिम्बित होते है ज्ञान की समस्त प्रक्रिया प्रकृति के आधार पर है / यह जड़ है। इस दर्शन की समकक्ष एक तरफ योगदर्शन जो ईश्वर को सर्वज्ञ कहता है, लेकिन उसकी भी चेतन विषय में तो सांख्य जैसी ही विचारणा है। सांख्य और योग ये दोनों सर्वज्ञ मीमांसा में एक जैसा औदासीन्य बताते हैं। बौद्धदर्शन - सर्वज्ञ को स्वीकार करता है लेकिन वह सर्वज्ञ को विशेषज्ञ स्वरूप में समझता है अत: इस दर्शन केलिए कहा गया है - . सर्वपश्यतु वा मा वा, तत्त्वमर्थ तु पश्यतु। कीट सङ्ख्या परिज्ञाने, तस्य न: क्वोप युज्यते॥ ... एक समय बुद्ध जा रहे थे और अनाज की गाड़ी जा रही थी बुद्ध को किसी ने पूछा कि इस गाड़े में कितने जीव हैं तब बुद्धने उग्रता पूर्वक उत्तर दिया - सभी जानो या न जानो लेकिन तत्त्व पदार्थ को जानों, इसमें कितने जीव है यह जानने का क्या उपयोग, इस प्रकार जीव संख्या करने से क्या लाभ ! कितना विचित्र यह उत्तर है यह 'उत्तर ही बुद्ध की विलक्षण प्रकृति का परिचय कराने में सार्थक है कि वे सर्वज्ञ नहीं थे। जो सर्वज्ञ के विषय को गंभीर रीति से जानना चाहता है वह “सर्वज्ञ सिद्धि” ग्रन्थ का स्वस्थता पूर्वक चिन्तन मनन अवलोकन यदि करता है तो उसके अनेक व्यामोह दूर हो जाते है, बाकी तो अन्ध यदि स्तम्भ के साथ टकराता है और उसको ही पीड़ा होती है तो उसमें स्तम्भ का क्या दोष हो सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्यश्री इस बात को बताते है कि सर्वज्ञ का अज्ञान, सर्वज्ञ का अस्वीकार यह भी सामान्य से मोह है, अज्ञान है, लेकिन सर्वज्ञ नहीं है, ऐसा आग्रह करना तो महामोह है ऐसा सज्जनों का मानना सर्वज्ञाप्रतिपत्तिर्यन्मोहः सामान्यतोऽपि हि। नास्त्येवाभिनिवेशस्तु, महामोहः सतां मतः॥११० | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIMINIA प्रथम अध्याय | 63 )