Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ इस ग्रन्थ का कलेवर बहुत ही छोटा है फिर भी अगाध रहस्य इसमें भरा हुआ है, इसी से इसकी विशिष्टता प्रगट होती है / इस ग्रन्थ में जिस विषय का निरूपण किया गया है / वह उसके “सर्वज्ञ सिद्धि" के अभिधान से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसमें सर्वज्ञ की सिद्धि करनी है। इस ग्रन्थ में सर्वज्ञ-विषयक मन्तव्य तीन विभागों में उल्लिखित है -1. सर्वज्ञ का अपलाप 2. सर्वज्ञ का अर्थ विशेषज्ञ तथा 3. सर्वज्ञ का अर्थ सम्पूर्ण ज्ञाता करते है। 1. सर्वज्ञ का अपलाप :- सर्वज्ञ को नहीं स्वीकारनेवालों में मुख्य सर्वज्ञ विषयक ज्ञान से जो .. अनभिज्ञ हैं अर्थात् सर्वज्ञ है या नहीं ऐसा ज्ञान भी जिनको नहीं हैं ऐसे अज्ञानी द्वारा सर्वज्ञ की बात करते है और कहते है कि सर्वज्ञ नहीं है तब आवश्यक हो जाता है उनके मन्तव्यों को जानना / चार्वाक् केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही स्वीकारता है जबकि सर्वज्ञ किसी प्रत्यक्ष से जाना जाए यह असंभव है, अत: वे सर्वज्ञ का अपलाप करते है, चार्वाक का यह कथन युक्ति रहित होते हुए भी सभी दार्शनिकोंने उनका उल्लेख किया हैं। क्योंकि सूक्ष्म विचारधाराओं में आगे बढ़ने के लिए चार्वाकों की प्रत्यक्ष प्रमाण की भूमिका सुन्दर भाग निभाति है। क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण के बिना विश्व में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं। चार्वाक् भौतिकवादी बनकर दूर हो जाते है इसलिए कलिकाल सर्वज्ञ हेमन्द्राचार्य ने तो चार्वाकों के लिए सचोट रूप में कहा है। सम्मतिर्विमतिर्वाऽपि, चार्वाकस्य न मृग्यते। परलोकात्म मोक्षेषु, यस्य मुह्यति शेमुषी॥१०८ हमारी बात में चार्वाक् सम्मत है या विमत इसका हम कुछ भी विचार नहीं करते है, कारण कि जिसकी बुद्धि परलोक, आत्मा, मोक्ष आदि में भी मोहित होती है और ये मूलभूत तत्त्व है या नहीं। इसका भी जो विचार नहीं कर सकता उसकी बात भी क्या करना, इसलिए चार्वाक् सर्वज्ञ नहीं है यदि ऐसा कहे तो उसकी बात में कोई तथ्य नहीं है। मीमांसकने सर्वज्ञ नहीं है यह प्रतिपादन उन्मार्ग पर आरूढ़ बनकर अत्यंत जटिलताओं से युक्त होकर किया है जो केवल बुद्धि की विडंबना ही है वेद कहते है वही सर्वस्व है / ईश्वर, सर्वज्ञ जैसी कोई वस्तु व्यक्ति दुनिया में नहीं है क्योंकि जो कुछ है वह वेद ही है मानव मात्र तो दोष का पात्र है वह सभी दोषों से मुक्त होकर सर्वज्ञ बनें, यह रेती में से तैल निकालने जैसी मूर्खता है। इसमें वेद अनादि सिद्ध है उसीका अनुसरण करना तथा ऋषि मुनि अनेक जो अर्थ समझाते हैं वही निशंकित रूपसे स्वीकार करने चाहिए इसमें यदि शंका की तो वेद का विध्वंस होता है और वेद के विध्वंस के समान विश्व में कोई पाप नहीं है वेद के सत्य अर्थ को समझाने के लिए विविध प्रकार के नियमों की मीमांसा इस दर्शनने की है जिसका विचार करते यही लगता है कि यह कैसा शब्द ब्रह्म का मायाजाल होगा और इस मायाजाल में मोहित शब्द ब्रह्म स्वयं स्वतन्त्र विचरण नहीं कर सकता। सर्वज्ञ और उनकी परंपरा से वंचित बने हुए मीमांसक वेद के अर्थ के विषय में अनेक शाखाओं-प्रतिशाखाओं में विभक्त हो गए और परस्पर विवाद में बंध गये, परिणाम यह आया कि दर्शनकाल के प्रवाह में आगे बढ़ते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIA प्रथम अध्याय | 62 |