________________ ग्रन्थ की मूल गाथाएँ 1396 और टीकाग्रंथ 10,000 श्लोक प्रमाण है इसके प्रथम भाग में 545+851 द्वितीय भाग में है 1444 ग्रन्थ के रचयिता सुरिपुरंदर आचार्य हरिभद्रसूरि इस मूल ग्रन्थ के प्रणेता है तो समर्थ टीकाकार आचार्यश्री मलयगिरिसूरि टीकाकार है, इससे इस ग्रन्थ की प्रभावकता विश्रुत बनी है। इस महान् ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद जयशेखर सूरीश्वरजी म.सा. के विद्वान् शिष्य अभयशेखर विजयजी म.सा. ने किया है, जो अत्यंत अनुमोदनीय है। 3. षड्दर्शन समुच्चय - आचार्य हरिभद्रसूरि की यह एक अलौकिक कृति है। दर्शनों की संख्या छ:कब निश्चित हुई इतिहास में इसका कोई निर्विवाद प्रमाण नहीं मिलता, फिर भी विद्यास्थानों में गणना के प्रसंग में दर्शनों या तर्कों की संख्या की चर्चा होने लगी थी इतना ही कहा जा सकता है। वेद से लेकर उपनिषदों तक भारतीय चिन्तनधारा उन्मुक्तरूप से बह रही थी और तपोवन आश्रमों, विद्यास्थानों में ऋषियों मुनियों अपने विचारों को शिष्यों और जिज्ञासुओं के समक्ष रख रहे थे लेकिन उन विचारों की व्यवस्था नहीं थी। भगवान बुद्ध तथा भगवान महावीर के बाद यह स्पष्ट हुआ कि वैदिक और अवैदिक ऐसी दो धाराएँ हैं। अवैदिक धारा में गोशालक, संजय वेलट्टीपुत्र, पूर्णकश्यप, अजीत, केशकम्बली आदि कई विचारक थे / उनमें बौद्ध, जैन और चार्वाक् आगे चलकर स्वतन्त्र दर्शन रूप में सिद्ध हए तथा वैदिको की भी कई शाखाएँ स्पष्ट हुई जिसमें सांख्ययोग न्यायवैशेषिक और मीमांसा आदि दर्शन रूप में स्थिर हुए इन में से सांख्य-योग और न्याय वैशषिक वैदिक थे। . ___ सत्यरूप में देखा जाए तो विविध दर्शनकार एकतत्त्व को अनेक रूप से निरूपित करते थे अत: जैसीभी वस्तु हो किन्तु उनके निरूपण में अनेक दृष्टिबिन्दु थे यह स्पष्ट है किन्तु ये दार्शनिक अपने-अपने मत दृढ़ करने में लगे हुए तथा दूसरे मतों को निराकरण, अत: उन विद्वानों से जो स्वयं के मत का आग्रह रखे, यह आशा रखनी निष्फल थी कि वे एक वस्तु को ही अनेक दृष्टिकोणों से निरूपण करे। नैयायिक आदि सभी दर्शन एक निश्चित प्ररूपणा लेकर चलने लगे और उसी ओर उनका आग्रह होने से दर्शनों की सृष्टि हो गयी, उनसे बाहर निकलना उनके लिए असम्भव था। ___जैनदर्शन के विषय में ऐसी बात नहीं थी वे तो दार्शनिक विवाद के क्षेत्र में नैयायिक आदि सभी दर्शनों के परिष्कार के बाद अर्थात् तीसरी सदी में हुए अतएव वे अपना पथ प्रशस्त करने में स्वतन्त्र थे और इनके लिए यह भी सुविधा थी कि जैनागमों में मुख्यरूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों दृष्टिओं से तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा विचारणा की पद्धति है, तथा निश्चय और व्यवहार भी वस्तु को अनेक रूपों में बताने में सक्षम है इन आगमशास्त्रों की व्याख्या जब होने लगी तब सात नयों का सिद्धान्त विकसित हुआ। यही समय था कि जैन दार्शनिक भारतीय दर्शन क्षेत्र में जो वाद-विवाद चल रहा था उसमें क्रमश: शामिल होते गये, परिणाम स्वरूप विविध मतों का सामञ्जस्य कैसा होना चाहिए इस विषय की ओर उनकी दृष्टि गई। यह तो निश्चित था कि जब पर्यायार्थिक नय से विचार करते थे तब अनित्यवादिओं के साथ उनक़ा | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VITA IA प्रथम अध्याय | 540