Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ 3. ललितविस्तरा 6. दशवैकालिक बृहवृत्ति 9. न्यायप्रवेश टीका 12. प्रज्ञापना प्रदेश व्याख्या 15. श्रावक प्रज्ञप्तिवृत्ति 18. समराइच्चकहा अन्यकर्तृक ग्रन्थो की टीका स्वरुप सम्प्रति उपलब्ध ग्रन्थराशि 1. अनुयोगद्वारलघुवृत्ति 2. आवश्यकसूत्र लघुटीका 4. जीवाभिगमलघुवृत्ति 5. दशवैकालिक लघुवृत्ति 7. ध्यानशतकवृत्ति 8. नन्दीसूत्र टीका 10. पञ्चसूत्रपञ्जिका 11. पिण्डनियुक्ति टीका 13. तत्त्वार्थ लघुवृत्ति 14. लघुक्षेत्रसमासवृत्ति 16. षड्दर्शन समुच्चय 17. षोडशकम् 19. सर्वज्ञसिद्धि सटीका सम्प्रत्ति उपलब्ध स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना 1. अनेकान्तवाद प्रवेश 2. अष्टक प्रकरण 4. दर्शनसप्ततिका 5. देवेन्द्रनरेन्द्र प्रकरण 7. धर्मसंग्रहणी 8. धूर्ताख्यान 10. पञ्चाशक 11. ब्रह्मप्रकरण 13. योगबिन्दु 14. लग्नशुद्धि 16. विंशति विंशिका . 17. षड्दर्शनसमुच्चय 3. उपदेशपद 6. धर्मबिन्दु 9. नाणाचितपयरण 12. यतिदिनकृत्या 15. लोकतत्त्वनिर्णय 18. षोडशक प्रकरण | 2. अनुपलब्ध संकेत प्राप्त कृतियाँ | असीम प्रतिभाशाली समन्वयवादी के पुरोधा आचार्य हरिभद्रसूरि ने भव्य जीवों के ज्ञान-विकास के लिए विपुल संख्या में तर्क-आचार-योग-ध्यान आदि विषयों के अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। उनके द्वारा रचे गये ग्रन्थकलाप का अधिकांश आज अनुपलब्ध ही है जो कृतियां आज उपलब्ध हो रही और जिनके अनुपलब्ध होने पर संकेत प्राप्त हो रहे है। वे निम्नोक्त है। अनुपलब्ध संकेत प्राप्त कृतियाँ 1. अनेकान्तप्रघट्टः 2. अनेकान्तवाद प्रवेश 3. अर्हच्चूडामणि 4. आवश्यकबृहट्टीका 5. उपदेश प्रकरणम् 6. ओघनियुक्तिवृत्ति 7. कथाकोशः 8. कर्मस्तववृत्ति 9. कुलकानि 10. क्षमावल्लीबीजम् 11. क्षेत्रसमासवृत्ति 12. चैत्यवंदनभाष्य 13. चैत्यवंदनवृत्ति 14. जम्बुदीपप्रज्ञप्ति 15. जम्बुद्वीप संग्रहणी 16. जीवाभिगमलघुवृत्ति 17. ज्ञानपञ्चकविवरणम् 18. तत्त्वतरङ्गिणी | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIR प्रथम अध्याय | 47