Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
View full book text
________________ को निष्णातता से निगदित करने का कौशल उस श्रुतमाता के शुभाशिर्वाद से ही सम्पन्न बना। ‘सूनु बनकर श्रमण-संस्कृति के प्राङ्गण में इन्होंने जो वत्सपन के विद्या वैभव को प्रदर्शित करने का एक * प्रयोग किया है वही उनका एक सूनुपन चरितार्थ हुआ है। याकिनी के भी सूनु बने, श्रुत देवता के भी सूनु बने, सूनु बनने का उनका स्वभाव कितनी सर्वोच्च स्थिती पर गया है, यह तो लेखनी से परे है। सारस्वत प्रधान श्रुतदेवता रहे है, और उस श्रुत क्षेत्र में गति करना सर्वसाधारण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है, पर आचार्य हरिभद्र एक ऐसे संभावित श्रुतधर बने कि सारे संसार को श्रुत रूप से, विद्यामय भाव गांभीर्य से गोदोहन तुल्य परिभाषित किया। दोहन प्रधान उनका श्रुतरूप दिव्य यश संसार में सुप्रसिद्ध बना है वैदिक, बौद्ध और जैन श्रुतश्रुतिओं, त्रिपुटकों का तात्त्विकता से दोहन कर उनके सारभूत दुग्ध को पी-पीकर अपने आत्म प्रज्ञा प्रकर्ष को प्रमाणित किया। आत्मप्रज्ञा में प्रौढ़ बने हुए महापुरुष को अपना और पराये का क्षुद्र भेद स्पर्श नहीं कर सकता, स्वदर्शन का आग्रह एवं कदाग्रह भी जो हितकारी होता, उसे स्वीकार कर लेते है। शेष त्याग देते, किसी के प्रति अन्तद्वैष नहीं रखते है और सत्य को छुपाते नहीं है। उन्होंने समदर्शित्व का साक्षात् स्वरूप योगदृष्टि समुच्चय में चित्रित किया है सर्वज्ञतत्त्वाभेदेन तथा सर्वज्ञ वादिनः। सर्वे तत्तत्त्वगा ज्ञेया, भिन्नाचारस्थिता अपि // 87 / “सर्वज्ञ भगवान एक ही है” ऐसा स्वीकार करने वाले भिन्न भिन्न आचारों से संयोजित होने पर भी वे सभी वादी सर्वज्ञतत्त्व में भेद नहीं मानने के कारण उन सभीको सर्वज्ञ तत्त्व के अनुगामी ही मानने चाहिए। योगबिन्दु में आचार्यश्री ने कहा कि - जो ऐश्वर्य से युक्त है वह ईश्वर ही है उसमें मात्र नामभेद है तत्त्व भेद नहीं है जैसे कि . मुक्तो बुद्धोऽर्हन्वापि यदैश्वर्येण समन्वितः। तदीश्वरः स एव स्यात् संज्ञाभेदोऽत्र केवलम्॥८ जो आत्म ऐश्वर्य से सुसज्जित हो, वह चाहे मुक्त, बुद्ध या अरिहंत कोई भी क्यों न हो लेकिन परमार्थ रूप से वह ईश्वर ही है उसमे मात्र संज्ञा भेद ही समझना चाहिए। परमोच्च पद निर्वाण जिसे अन्यदर्शनकारों ने अन्य शब्दों से संज्ञित किया उसे आचार्य श्री दार्शनिक जगत में स्याद्वाद को अपना कर अपने ग्रन्थों में सहचारी बनाकर संकलित करते है-जैसे कि सदाशिवः परं बह्म, सिद्धात्मा तथातेतिच। शब्देस्तदुच्यतेऽन्वर्थादेक मेवैवमादिभिः // 9 निर्वाण परमोच्च पद तो एक ही है फिर भी अन्वर्थ के योग से सदाशिव, सिद्धात्मा, और तथाता यह | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V प्रथम अध्याय | 45