Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ 19. त्रिभङ्गीसार 20. दर्शनशुद्धिप्रकरणम् 22. द्विजवदनचपेटा 23. धर्मलाभसिद्धि 25. नन्द्यध्ययनटीका 26. न्यायविनिश्चय 28. पंचनियंठी 29. पञ्चलिङ्गी 31. परलोकसिद्धि 32. प्रतिष्ठाकल्प 34. यशोधरचरित्रम् 35. लग्नकुण्डलिका 37. वीरस्तव 38. वीराङ्गदकथा 40. व्यवहारकल्प 41. शास्त्रवार्तासमुच्चय 43. श्रावकधर्मतन्त्रम् 44. षड्दर्शनी 46. संग्रहणी 47. संपञ्चासित्तरी 49. संस्कृतात्मानुशासनम् 50. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार 21. दिनशुद्धि 24. धर्मसार: 27. न्यायवतारवृत्ति 30. पञ्चस्थानक 33. बृहन्मिथ्यात्वमथनम् 36. लघुसंग्रहणी 39. वेदबाह्यतानिराकरणम् 42. स्वोपज्ञटीकोपेतः 45. संकितपंचासी 48. संबोधसित्तरी 3. दार्शनिक कृतियों का विवेचन | 1. शास्त्रवार्ता समुच्चय - आचार्य हरिभद्रसूरि ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिसमें "शास्त्रवार्ता समुच्चय” उनकी एक अनूठी दार्शनिक कृति है। ____अनेक जैनाचार्य के मुख से यह उद्गार सहज ही निकल जाते है कि अहो खेद की बात है कि आज सर्वज्ञ प्रणीत एवं गणधरों से गुम्फित द्वादशाङ्गी का बारहवाँ अंग अनुपलब्ध है। यदि आज वह अगाध ज्ञान का सागर 'दृष्टिवाद' उपलब्ध हो जाता तो प्रज्ञावानों को स्पष्ट ज्ञात हो जाता कि जो परमार्थ पदार्थों का यथार्थ स्वरूप यहाँ दर्शित है वही अंशत: इतर सम्प्रदायों में है, जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र मिलना अशक्य है, क्योंकि मूलमार्ग के प्रणेता तीर्थंकर ही है। अन्य विद्वानों ने तो जैन शास्त्रों में प्रतिपाद्य तत्त्वों को अंशत: ग्रहण करके उन्हें एकान्तवाद का परिधान देकर अन्यायान्य अनेक मतवादों को जन्म दिया है। जैन दर्शन में संसार प्रवाह रूप से अनादि अनंत है। संसार अनादि होने से आत्मा का कर्मों के साथ सम्बन्ध भी अनादि है, उसका कर्ता कोई नही है जीव अनादि काल से अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार भिन्नभिन्न गतियों को प्राप्त करता है तथा यथासमय भवितव्यता के परिपक्व होने पर आत्म-कल्याण के पथ पर आरूढ़ होने की चेष्टाएँ करता है। ईश्वर के सम्बन्ध में जैनदर्शनकारों की धारणाएँ है कि ईश्वर कोई नित्य नैसर्गिक वस्तु नहीं है परन्तु जीव में उत्कृष्ट कर्मस्थिति का जैसे ह्रास होता जाता है वैसे वैसे उसमें ज्ञान-दर्शन-चरित्र रूप रत्नत्रयी की आराधना करने का प्रबल पुरुषार्थ जाग्रत होता है और जिससे वह घाति कर्मो को क्षय करके एवं करूणा भावना से अत्यंत [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIINA प्रथम अध्याय 48 )