Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ सेण विसेणा पित्तिय उत्ता जम्मम्मि सत्तमए॥ गुणचन्द - वाणमन्तर समराइच्च गिरिसेण पाणो अ। एगस्स तओ मोक्खोऽणन्तो अन्नस्स संसारो॥४ समरादित्य केवली के नौ भवों का मात्र नाम निर्देश इन तीनों गाथाओं में किया गया है। अंत में कहा है कि एक का मोक्ष हुआ, दूसरा अनन्त संसार में भटकेगा। गुरुदेव द्वारा प्रेषित उन तीन गाथाओं को पढ़कर वे गहन चिन्तन में डूब गये। उनके मुँह के भावों में परिवर्तन आ गया, जैसे दावाग्नि मुसलाधार वर्षा होने से शांत हो जाती है वैसे ही गुरुदेव की तीन गाथाओं ने उन पर मुसलाधार वर्षा का काम किया। हरिभद्र के तप्त हृदय पर प्रभाव डाला और उनका क्रोध शांत हो गया। क्षण भरमें सभी बौद्धों को प्राणदान देकर विसर्जित कर दिये / और स्वयं गुरु के चरणों में जाकर पश्चाताप के आँसू बहाने तथा प्रायश्चित लेकर अपनी ओर से आत्मशुद्धि के लिए 1444 ग्रन्थों को रचने की भीष्म प्रतिज्ञा का प्रण लिया, जिसमें सर्व प्रथम रचना उनकी “समराइच्चकहा" प्राकृत में हुई। अपने शिष्यों के वियोग से संतप्त, संक्षुब्ध बने हुए हरिभद्रसूरि हताशा के गहरे गर्त में डूब गये थे, ऐसी स्थिती में आचार्य श्री को देखकर अम्बिका देवीने उनको सान्त्वना युक्त वचन कहे - हे सूरिवर ! आप तो सम्पूर्ण संसार के त्यागी है तो फिर शिष्यों के वियोग से विचलित क्यों बन रहे हो? कर्म के विपाक के ज्ञाता आप जैसे समर्थ विद्वानों को मेरा तेरा क्यों ? उस समय आचार्यश्री ने कहा - हे माँ ! मुझे शिष्यों के वियोग का दुःख नहीं सता रहा है लेकिन निर्मल गुरुकुल की समाप्ति के विचारोंसे हृदय टूट गया है। शासन की परम्परा को संभालने वाली समर्थ गुरू परम्परा की एक पेढ़ी भी बढ़ाने में मैं समर्थ नहीं हो सका, विश्व हितैषी जिनशासन की सेवा करने का सौभाग्य टूट जाने के कारण दिल करुण आक्रन्द कर रहा है। तब हरिभद्र को सम्बोधित करते हुए देवी कहती कि मेरी एक सत्य बात सुन लो कि गुरुकुल वृद्धि का पुण्य तुम्हारे भाग्य में चाहे न हो लेकिन शास्त्र ही तुम्हारे शिष्य बनकर तुम्हारे पीछे सैकडो वर्ष तक जिनशासन की सेवा में पुरोगामी बनकर संघ के सहायक बनेंगे, शिष्य संतति के उच्छेद का आर्तध्यान छोड़कर शास्त्र संतति के निर्माण में प्रवृत्त हो जाओ इस प्रकार कहकर देवी अदृश्य हो गई। देवी के उत्साहवर्धक वचनों को सुनकर आचार्य श्री ने शोक को तिलाञ्जली देकर शास्त्ररचना प्रारंभ कर दी, और एक ऐसा विलक्षण चमत्कार सर्जित हुआ कि एक दो या सौ नहीं, 1444 ग्रन्थों की रचना की। ___ कार्पासिक नामका एक व्यापारी वहाँ आया। वह निर्धन था। आचार्य श्री ने उसको “धूर्ताख्यान" सुनाया और श्रद्धालु जैन बनाया। उसने कोई एक व्यापार किया जिसमें पुष्कल धन का लाभ हुआ अत: उसने आचार्य श्री के द्वारा रचित ग्रन्थों को लिखाये और साधु समुदाय में वितरण कराये। एक ही स्थान पर 84 बड़े जिनालय बनवाये। और जीर्ण शीर्ण बना हुआ “महनिशीथसूत्र' को | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIA प्रथम अध्याय 10