Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ व्यवस्थित कर पुस्तकारूढ करवाया।१५ - जिनागमों के उपयोग से अपने आयुष्य का अन्तिम समय जानकर अनशन करके देवलोक प्राप्त हुए। "प्रभावक चरित्र' में आचार्य हरिभद्रसूरि का चरित्र इस प्रकार वर्णित है। “आचार्य भद्रेश्वरसूरि द्वारा रचित "कहावलि" में आचार्य हरिभद्रसूरि" आ. हरिभद्रसूरि पियंगुवई नाम की ब्रह्मपुरी के निवासी थे जब कि अन्य प्राचीन ग्रन्थों में जन्मस्थान के रूप में चित्तौड़ चित्रकूट का उल्लेख मिलता है। ये दोनों निर्देश भिन्न होने पर भी वस्तुतः इसमें खास विरोध जैसा ज्ञात नहीं होता है। “पिवंगुई" ऐसा मूल नाम शुद्ध रूप में उल्लिखित हो या फिर विकृत में प्राप्त हुआ हो यह कहना कठिन है। परंतु उसके साथ “बंभपुणी” का उल्लेख है वह “ब्रह्मपुरी" का ही विकृत रूप है इस तरह चाहे जो हो, परन्तु ऐसा तो लगता है कि हरिभद्र का जन्म स्थान मूल चित्तौड़ न हो तो भी चित्तौड़ अथवा मध्यमिका में से किसी एक के साथ उसका अधिक सम्बन्ध होना चाहिए। “ब्रह्मपुरी' संकेत यथार्थ हो तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि चित्तौड़ जैसी नगरी का ब्राह्मणों की प्रधानता वाला कोई उपनगर या मुहल्ला भी हो। भीनमाल में आज भी ब्राह्मणों के मुहल्ले को ब्रह्मपुरी कहते है। इस प्रकार जन्म-स्थान का विचार करने पर हरिभद्र प्राचीन गुजरात के प्रदेश से बहुत दूर के नहीं है।१६ / / इनके माता पिता के नाम किसी ग्रन्थ में नहीं मिलते है मात्र “कहावलि' में है। पिता का नाम शंकरभट्ट और माता का नाम गंगादेवी था। “संकरो नाम भटो तस्स गंगा नाम भट्टिणी। तीसे हरिभद्दो नाम पंडिओ पुत्तो // 17 पुरोहित हरिभद्र ने साध्वी याकिनी के मुख से “चक्की दुर्ग" गाथा सुनी। उसी साध्वीजी के साथ अन्य मतानुसार आचार्य जिनदत्तसूरि के पास जाकर उनके मुंह से अर्थ सुना और धर्म सुना। निष्कामवृत्ति वाले को धर्म का फल मोक्ष मिलता है, ऐसा जानकर भव-विरह के लिए उनके पास दीक्षा ली। गुरुदेव ने उनको शास्त्र का अध्ययन करवाया और अपने पट्ट पर स्थापित करके आचार्य पद दिया। आ. हरिभद्र के जिनभद्र एवं वीरभद्र नामके दो शिष्य हुए, जो सर्वशास्त्रों के वेत्ता थे। चित्तौड़ के बौद्ध वाद-विवाद में पारंगत थे। वे आचार्य श्री के ज्ञान और कला से ईर्ष्या करते थे और इसी कारण उन्होंने उनके दोनों शिष्यों को गुप्त रूप से मरवा डाले। हरिभद्रसूरिने इस घटना को सुनकर अनशन करने का निश्चय किया, परन्तु दूसरे मुनिवरों ने उनको वैसा करने से रोका, और अन्त में आचार्य हरिभद्र ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। अपने अनेक ग्रन्थों में उन्होंने भवविरह शब्द का संकेत किया है, अत: उनका भव-विरह नाम से भी शास्त्रों में उल्लेख मिलता। एकबार उनके शिष्य जिनभद्र और वीरभद्र के काका लल्लिग दरिद्रता से उद्विग्न बने हुए आचार्य श्री के पास दीक्षा लेने आये, परन्तु आचार्य श्री ने उनको दीक्षा न देकर व्यापार करने का संकेत किया। ऐसा करके [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII प्रथम अध्याय