Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ - ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्तिवृत्ति लिखकर पुरातनी समाचारी का सुंदर विवेचन दिया है। . . “धर्मलाभ' श्रमण मुनियों का आशीर्वादात्मक उद्घोष है, उसको साहित्यिक रूप देने में आचार्यश्री का वरदहस्त रहा और “धर्मलाभसिद्धि" ग्रन्थ लिखकर जैन जगत का अपार हित किया। परलोक विषयक भ्रान्तियों को भ्रमरहित बनाने के लिए “परलोकसिद्धि' जैसे सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ को लिखकर पारलौकिक परलाभ को अभिव्यक्त किया। श्रावक हमारे जिनशासन के स्तम्भ है उनके विषय में श्रावक प्रज्ञप्ति, श्रावक धर्मतन्त्र, जैसे ग्रन्थ का लेखन कर श्रावक धर्म की मर्यादा को सम्मानित किया है। सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का वास्तविक बोध देने हेतु “संबोध प्रकरण" तथा सम्यग् दर्शन के सुबोध के लिए “सम्यक्त्व-सप्ततिका” ग्रन्थ की रचना की। इस प्रकार आचार्यश्री का विशाल वाङ्मय पर पूर्ण अधिकार था। उनको आगमों से प्राप्य कोई विषय अछूता नहीं था वे उसमें आकण्ठ डूब गये थे तथा चारों ओर से निरीक्षण करके सूक्ष्म से सूक्ष्मतम पदार्थों को विवेचित करने का पूर्ण प्रयत्न किया। फलतः आज हम भी कह सकते है कि “हा अणाहा कहं हुन्ता, जइ न हुन्तो हरिभद्दो।" योग विषय में अभूतपूर्व योगदान - अनेक दर्शनकारों ने योग की भूमिका को विश्व के सामने प्रकाशित की है लेकिन आचार्य हरिभद्रसूरि की योग संकलना अपने आप में अपूर्व रही है। - आचार्यश्री संकलन परम्परा के एक प्रवीण पुरुष रूप में प्रख्यात होकर योगविधियों के विशेषज्ञ जाने गये, उनका जीवन चरित योगमार्ग पर प्रवृत्ति करता पुरातन योग विषयों का गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन एवं लेखन करता रहा। सम्पूर्ण योग संकलन उन्होंने स्वयं के मति-कल्पना से नहीं किया, लेकिन पूर्वाचार्यों के रचित योगग्रन्थों के आधार पर किया, लेकिन इतना तो अवश्य कहना होगा कि उन्होंने योगविषयक संरचना बालजीवों के * ' हितकारी बने उस दृष्टि को ध्यान में रखकर अत्यंत संक्षेप एवं सुबोधात्मक रूप में की है। योगदृष्टि समुच्चय में इस बात को चित्रित की है। अनेकयोगशास्त्रेभ्य: संक्षेपेण समुद्धृतः। दृष्टिभेदेन योगोऽय मात्मानुस्मृतये परः // 85 महर्षि पतञ्जलि आदि अनेक योगवेत्ताओं की दृष्टि के भेदों-प्रभेदों से युक्त यह योगमार्ग संक्षेप रूप में मैंने अपनी आत्मा की स्मृति से उद्धृत किया अर्थात् जिस प्रकार दधि के मंथन से नवनीत निकालकर पृथक् किया जाता है जो सारभूत तत्त्व (घी) को प्रगट करता है। उसी प्रकार योग-शास्त्रों के मंथन स्वरूप यह मेरा परिश्रम नवनीत तुल्य है, जो आत्म-कल्याण रूप लक्ष्य को साधने में शीघ्र सफल होगा। योगविषयक उनके चार ग्रंथ प्राप्त होते है जिसके नाम योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगशतक, और [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII प्रथम अध्याय | 41