Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ पुनः साधित करते हुए जीवन को महापवित्र , आत्म-परायण, परमात्म निष्ठ, परोपकार शील बनाया जा सकता है। योग शक्ति की श्रेष्ठता को सर्वोपरि सिद्ध करने में आचार्य श्री के योग-ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण रहे हैं। चाहे योगविंशिका हो, योगबिन्दु हो, योगशतक हो या योगदृष्टि समुच्चय हो सभी के सभी योग विद्या के महाप्रवर्तक रहे है। आचार्य हरिभद्र को समाज के विभिन्न घटकों का गहरा ज्ञान था। एक विरक्त विद्वान् की लेखनी से “धूर्ताख्यान' जैसे ग्रन्थ का निरूपण हुआ, जो प्राञ्जल प्राकृत भाषा में परिष्कृत मिल रहा है। धूर्तों का भी एक समाज था, संविधान था, सम्मेलन होता था और अपनी हार जीत की बाते लायी जाती थी। इस ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र धूर्त समाज की सामाजिकता, चतुरता एवं वाक् निपुणता का परिचय देते हुए तत्कालिन धूर्त समाज की छवि चित्रित करते है। नारी समाज भी धुत्र्तों के मध्य में नेतृत्व करता था। "धुत्तीणं पंचसया खंडवणाए अणवरि परिवारो।"८३ निपुणता से निष्णात धूर्तों को पराजित करने में परम बुद्धिमत्ता प्रगट करता था इसका समुल्लेख आचार्य हरिभद्र ने “धूर्ताख्यान' में बड़ी गंभीरता से अभिव्यक्त किया है। यद्यपि ग्रन्थ का प्रमाण अल्प है लेकिन बाते कुछ चटपटी-अटपटी कही हुई है जो आश्चर्य से भरी हुई संभवित भी नहीं हो सकती है, एक कल्पना के जाल बिछाने में 'धूर्ताख्यान' ग्रन्थ सफल दिखता है। आचार्य हरिभद्र महान् ज्योतिर्विद् होकर वाङ्मयी सर्जना में अग्रसर रहे है। दिनशुद्धि, लग्नशुद्धि और लग्नकुण्डली इन तीन ग्रन्थों का प्राय: यत्र-तत्र विवरण विशेषतया उपलब्ध होता है। हेमहंसगणि ने आरम्भसिद्धि वार्तिक में प्रहर, अर्धप्रहर के मापदण्ड में 'दिनशुद्धि' ग्रन्थ का समुल्लेख किया है। विदेशी विद्वान् पीटर्सन ने इसकी चर्चा की है। .. हेमहंसगणि से रचित 'आरंभसिद्धिवार्तिक' में कर्क, संवर्तक, काण, यमघण्टयोग आदि “लग्नशुद्धि" और “लग्नकुण्डली' के उद्धरण देकर आचार्य हरिभद्र की ज्योतिर्विषयक विद्वत्ता को मान्यता दी है। आचार्य हरिभद्र एक सर्वांगीण विद्वान् के रूप में विख्यात रहे। उनका लेखन ज्योतिर्विषयक विज्ञान को चर्चित करने में समय -समय पर सजग रहा है। अत:काल, नक्षत्र आदि का परिज्ञान योगकरण, लग्न आदि का अवबोध उन्हें परिपूर्ण था। “समराइच्चकहा" आदि कथाओं में भी उन्होंने अपनी ज्योतिष विद्या का प्रसंग प्रबोध प्रदर्शित किया है। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के फलित-गणित मुहूर्त सम्बन्धी विवरणों का उल्लेख करने में वे कुशल रहें। ___ आचार्य हरिभद्र का कर्म विषयक निरूपण निराला मिलता है और स्वतंत्र उनकी संरचना भी उपलब्ध होती है “कर्मस्तववृत्ति'उनका एक स्वतंत्र कर्म विषयक ग्रन्थ रहा है, प्रकरण ग्रथों में उन्होंने कर्म-सिद्धान्तों का विविध रूप से विशेष परिचय देकर अपनी कर्म सिद्धान्त प्राज्ञता को अस्खलित रखा है। कर्म-सिद्धान्त जैन परम्परा का मूलाधार है उसकी मौलिकता सम्पूर्ण जैन आम्नाय में मान्य की है, कर्मवाद सदा से सस्त दार्शनिकों का विचार-मंच बना है परन्तु आचार्य हरिभद्र एक निष्ठावान् बनकर अपने आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII | प्रथम अध्याय | 39 ]