Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ जैन परम्परा में यह भी एक वृद्धप्रवाद है और कई ग्रन्थकार ने भी यह बताया है कि हरिभद्रसूरि पूर्व नामके श्रुत का बहुत विच्छेद होने के निकटकाल में ही हुए थे और उस समय तक बचे हुए पूर्व के अंशो का संग्रहकार्य उन्होंने किया था। श्री हरिभद्रसूरि विरचित महान् ग्रन्थराशि को देखने से भी इस कथन की पुष्टि होती है और साथ ही विक्रम के बाद साधिक 500 वर्ष पश्चात् पूर्वश्रुत का विच्छेद होने से आ. हरिभद्र के उपर्युक्त समय का समर्थन होता है। ___ आधुनिक विद्वानों का एक मत यह है कि हरिभद्रसूरि का जीवन काल वि.सं. 757 से 827 के बीच में था। जिनविजय ने “जैन साहित्य संशोधक' के पहले अंक में "हरिभद्रसूरि का समय निर्णय" शीर्षक से एक विस्तृत निबन्ध में इस मत को प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है इसका सारांश यह है कि हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थों में व्याकरणवेत्ता भर्तृहरि, बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति और मीमांसक कुमारिल भट्ट आदि अनेक ग्रन्थकारों का नामश: उल्लेख किया है। जैसे अनेकान्त जय पताका के चतुर्थ अधिकार की स्वोपज्ञ टीका में "शब्दार्थतत्त्वविद् भत्तृहरि' तथा पूर्वाचार्य धर्मपाल धर्मकीर्त्यादिभिः इस प्रकार उल्लेख किया है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में श्लोक नं. 296 की स्वोपज्ञ टीका में 'सूक्ष्मबुद्धिना शान्तरक्षितेन' तथा श्लोक नं. 85 में आह च कुमारिलादि: ऐसा कहा है। इन चार आचार्यो का समय इस प्रकार है ई.स. 7 वी शताब्दी में भारत प्रवासी चीन देशीय इत्सिंग ने 700 श्लोक प्रमाण वाक्यपदीय ग्रन्थ' की रचना करनेवाले भर्तृहरि की वि.स. 707 में मृत्यु होने की बात कही है। कुमारिल का समय वि.स. की 8 वी शताब्दी का उत्तरार्ध बताया जाता है। धर्मकीर्ति का भी नामोल्लेख इत्सिंग ने किया है। इससे जिनविजय ने उसका समय ई.स. 635-650 के बीच मान लिया है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में जिस 'शान्तरक्षित' का नामोल्लेख है / यदि वह ही तत्त्व संग्रह के रचयिता हो तो उनका समय विनयतोष भट्टाचार्य के अनुसार ई.स.७०५ से 762 के बीच है। यहाँ एक बात पर ध्यान देने योग्य है कि 'तत्त्वसंग्रह' के टीकाकार ‘कमलशील' ने पञ्जिका में तथा चोक्तामाचार्यसूरिपादैः ऐसा कहकर जिस सूरि का उल्लेख किया है उस सूरि को विनयतोष भट्टाचार्य ने तत्त्वसंग्रह के इंगलिश फोरवर्ड में हरिभद्रसूरि ही बताया है, पीटरसन के रिपोर्ट के ‘पञ्चसए' ऐसा पाठ वाली गाथा के आधार पर उन्होंने हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास वि.स, 535 में माना है, किन्तु श्री हरिभद्रसूरि ने ही स्वयं 'शान्तरक्षित' का नामोल्लेख किया है इसलिए लगता है कि तत्त्वसंग्रह पञ्जिका में उल्लिखित आचार्य हरिभद्रसूरि न होकर अन्य होंगे। इन प्राचीन विद्वानों का समय विक्रमीय 8 वी शताब्दी होने से जिनविजय ने श्रीहरिभद्रसूरि को 8 वी शताब्दी के विद्वान् माने है और 8 वी शताब्दी के उत्तरार्ध में विशेषत: उनका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए 'कुवलयमाला' के प्रशस्ति की साक्षी दी है - 'आयरियवीरभद्दो अहावरो कप्परुक्खोव्व। सो सिद्धन्तेन गुरु जुत्तिसत्थेहिं जस्स हरिभद्दो / बहुगंथसत्थवित्थर पत्थारियपयडसव्वत्थो॥२ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / प्रथम अध्याय | 16