Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
View full book text
________________ चलेगा इत्यादि ज्योतिष विषय के प्रज्ञावान् लौकिक आप्त पुरुषों के वचनरूप आगमों से अबाधित रूप में कहे जाते है, उसे भी सत्यरूप में स्वीकारा जाता है तो तीर्थंकर देवका आगम वचन अबाधित सत्य साबित कैसे न हो। अतः आगमवचन से ही अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते है, शुष्क तर्कों से नहीं। इस विषय में उन्होंने आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सूरि का भी अनुसरण किया है कि श्रद्धागम्य अतीन्द्रिय पदार्थों को तर्क के तराजू पर तोलने का प्रयास समुचित नहीं है, क्योंकि उन शुष्कतों में पदार्थो का भार सहन करने की क्षमता नहीं होती है। इस संबंध में भर्तृहरि के कथन को भी उन्होंने “योगदृष्टि समुच्चय' में दोहराया है कि श्रद्धागम्य अतीन्द्रिय पदार्थ यदि तर्क की सीमाओं में बंध जाते तो तर्कवादियों ने अब तक उनके विषय में अन्तिम निष्कर्ष का शंखनाद बजा दिया होता। इस बात को प्रमाणनयतत्वालोक में वादिदेवसूरिजी ने कही है। “आप्त रचनादार्विभूतमर्थ संवेदनमागम।"४६ अतः शुष्क तर्कों में भ्रमित न बनकर मुमुक्षु आत्माएँ अतीन्द्रिय पदार्थों को श्रद्धागम्य स्वीकार करे, इसमें ही उन्नयन है। उदारता :- उन्होंने अपने ग्रन्थो में परदर्शनकारों को भी महामति, धीधन, महर्षि आदि सम्मानित शब्दों से संबोधित किये है एवं अन्यदर्शनकारों के मन्तव्यों को भी माननीय मानकर समुल्लेखित किये है तथा अन्यदर्शनकार बौद्ध विद्वान् दिङ्नाग रचित "न्यायप्रवेशक सूत्रम्' ग्रन्थ पर “न्यायप्रवेशवृत्ति' भी लिखी है। यह उनकी विशाल उदारता को व्यक्त करती है। आचारसंहिता :- आचार्यश्री की लेखनी दार्शनिक तत्त्वों तक ही सीमित नहीं रही अपितु जनता को निष्कलंकित जीवन व्यतित करने तथा सच्चरित्र का श्रद्धापूर्वक पालन करने, शिक्षा प्रदान करने हेतु भगवद् उपदिष्ट आचारों का संकलन कर “पंचवस्तुक, दशवैकालिक, यतिदिनचर्या जैसे यतिशास्त्र तथा पञ्चाशक, श्रावकप्रज्ञप्ति जैसे श्रावकाचार शास्त्र की रचना में क्रियान्वित हुई। स्वयं श्रमण संस्कृति के आचारों में प्रयोगवान् बनकर जगत के सामने आचार संहिता अनूठी प्रस्तुत की इसमें ही इनकी आचार निष्ठता मुखरित हो रही है। __ आध्यात्मिकता :- आचार्यश्री की लेखनी आचार संहिता से परे एक अलौकिक अदृश्य तत्त्व की प्राप्ति के लिए अविश्रान्त रूप से चली जिसके बिना मनुष्य का न तो तत्त्वदर्शन ही पूरा हो पाता है और न चरित्र ही मोक्षात्मक लक्ष्य के साधना में सफल हो पाता है, वह विषय है “ध्यानसाधना।" इस विषय पर भी कई ग्रंथ लिखे जैसे ध्यानशतकटीका, योगशतक, योगविंशिका, योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, ब्रह्मप्रकरण आदि निश्चय ही ये ग्रन्थ मोक्षमार्ग के पथिक साधक के लिए महान् संबल है, 'ध्यानशतक' में उनकी आध्यात्मिकता आलोकित होती है। जं धिर मज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता॥७ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII प्रथम अध्याय